DU में ऐसे करेंगे पॉल‍िट‍िक्‍स तो कैसे बनेंगे बड़े नेता?हरकतों से कोर्ट भी खफा

2 hours ago 1

हाइलाइट्स

विश्वविद्यालयों-कॉलेजों में छात्र राजनीति पर फिर से बहस की जरूरी मान-सम्मान, शिक्षा का हिस्सा, फिर प्राध्यापकों से मारपीट कैसे? कोर्ट को भी नागवार गुजरा चुनाव लड़ने का ये तरीका

छात्र को राजनीति में आना चाहिए, नहीं आना चाहिए. इस पर तो अब कोई बहस करने की जरुरत ही नहीं है. इस पर आजादी से लेकर अब तक इतनी चर्चा हो चुकी है कि हरेक के पास कुछ न कुछ कहने के लिए है. ये भी मान लिया गया है कि छात्रों को राजनीति से अलग रखा नहीं जा सकता. हां, ये माना गया था कि विश्वविद्यालय और कॉलेजों की छात्र राजनीति विद्यार्थियों में एक चेतना भरती है. उन्हें भविष्य के लिए तैयार करती है. ऐसी बहुतेरी नजीर दी जा सकती कि छात्र राजनीति से निकले लोगों ने देश की राजनीति में बड़ा योगदान दिया और लोकतंत्र की सबसे बड़ी कुर्सियों तक पहुंचे.

दूसरे कैंपसों की हालत भी ऐसी ही
ये तो एक पक्ष है. विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में छात्र संघ चुनाव कितने अहम हो गए हैं इसका अंदाजा दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनावों को देख कर लगाया जा सकता है. दिल्ली के ही जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के चुनावों में भी बहुत कुछ दिखा था. इन दोनों छात्र संघ चुनावों में पर्याप्त मात्रा में अराजकता भी दिखी थी. ऐसा नहीं कि ये सिर्फ दिल्ली के दो यूनिवर्सिटीज की बात हो. देश के तमाम कैंपसों की हालत यही है. बहुत सारे छात्रों ने विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए ही तय कर लिया होता है, कि उन्हें राजनीति को ही अपना करियर बनाना है. इसके लिए वे हर तरह से इसमें जुट जाते हैं.

रोल मॉडल बन जाते हैं छात्र नेता
अपनी राजनीतिक मंजिल हासिल करने के लिए ऐसे छात्रों को जो भी करना होता है उसमें पीछे नहीं हटते. छात्र राजनीति कर रहे बहुत से युवाओं की बुद्धि बहुत सारे मामले में उनकी उम्र के दूसरे युवाओं जैसी ही होती है. मतलब ये है कि ऐसे बहुत से युवा भी राजनीतिक दलों के मोहरे बन जाते हैं. यहां ये भी ध्यान देना होगा कि छात्र राजनीति की अगली पांत में पहुंच चुके युवा दूसरे बहुत सारे विद्यार्थियों के रोल मॉडल भी बन जाते हैं. इसका खामियाजा ये होता है कि ऐसे बहुत से सामान्य विद्यार्थी अपना समय गवां देते हैं, जिसका असर उनके पूरे करियर पर आता है.

‘कुछ’ तो मिलता है कैंपस की नेतागिरी से
वैसे इस तरह के नतीजे उस दौर में ज्यादा दिखते थे, जब छात्र संघ चुनावों को लेकर लिंग्दोह समिति की रिपोर्ट नहीं लागू हुई थी. लिग्दोह समिति की सिफारिशे लागू किये जाने से जरुर इसका असर कम हुआ है. वरना अगर पुराने समय की बात की जाय तो बहुत से अधेड़ छात्र नेता तमाम विश्वविद्यालयों में दिख जाते थे. अपनी परिपक्व बुद्धि से वे युवा छात्रों और छात्र नेताओं के बीच सम्मान भी पाते रहे. इसके लिए तरह तरह के पैंतरे भी अपनाया करते थे. इसका सीधा नुकसान पढ़ लिख कर परिवार का सहारा बनने आए विद्यार्थियों को होता था. ऐसे बहुत से छात्र नेता अभी भी उत्तर प्रदेश बिहार के छोटे शहरों में मिल सकते हैं जो न तो राजनीति की मुख्य धारा में कोई मुकाम हांसिल कर पाए न ही उन्हें कोई रोजगार का जायज मान्य जरिया मिल सका.

ये स्थिति अब दिल्ली की विश्वविद्यालयों में न दिख रही हो, लेकिन जिस तरह की अराजकता यहां हुई और मामला कोर्ट तक पहुंचा वो इसकी विद्रूपता का एक दूसरा पक्ष है. दिल्ली विश्वविद्यालय में इसके सभी कॉलेजों के छात्र भी वोटर होते हैं. इस लिहाज से यहां मतदाता छात्रों की संख्या डेढ लाख तक पहुंच जाती है. चुनाव लिंग्दोह कमेटी की ओर से तय मानकों के आधार पर ही होने थे. नियमों का पालन न किए जाने और पूरे इलाके को पोस्टरों बैनरों से पाट देने पर मामला कोर्ट तक गया. कोर्ट ने खासी नाराजगी जताई. नियम ये हैं कि छात्र संघ चुनावों में सिर्फ हाथ से लिखे पोस्टरों बैनरों का प्रयोग किया जाना चाहिए. कोर्ट के अलावा यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन को भी छात्र संघ चुनावों की प्रक्रिया और इसके नियमों पर विचार करना चाहिए.

यहां कैंपस की हालत देख समझना मुश्किल हो रहा था कि छात्रों नेताओं ने पोस्टर बैनर बनवाने में कितने लाख रुपये खर्च किए होंगे. जाहिर है उन्हें ये रुपये कहीं न कहीं से मिले होंगे. जो आगे चल कर उन रुपयों को वसूलेंगे भी. छात्रों की भीड़ जमा करके या दूसरे किसी तरीके से.

ये भी पढ़ें : त‍िरुपत‍ि के लड्डू छोड़िए… आप घर के पराठों में लगा-लगा तो नहीं खा रहे ‘सस्‍ता घी’, उसमें भी हो सकती है पशु चर्बी?

खैर बात इतनी ही होती तो कहा जाता कि देश की दूसरी व्यवस्थाओं की तरह यहां भी वही गिरावट है. लेकिन यहां मतदान के दिन छात्र नेताओं के एक गुट ने चुनाव के काम में लगे अध्यापकों से हाथापाईं की. इसे तो किसी भी स्थिति में क्षमा नहीं किया जा सकता. छात्र कैंपसों में पढ़ने जाते हैं. अध्यापक पूरे मान के साथ पढ़ाने. छात्र अध्यापकों का मान करना न सीखे और अध्यापकों को गुरु का सम्मान न मिले तो छात्र राजनीति बिल्कुल वाहियात कही जा सकती है. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि कैंपस में छात्र राजनीति की जरुरत पर एक राष्ट्रीय बहस फिर से हो.

Tags: Delhi University, Ugc

FIRST PUBLISHED :

September 27, 2024, 14:47 IST

*** Disclaimer: This Article is auto-aggregated by a Rss Api Program and has not been created or edited by Nandigram Times

(Note: This is an unedited and auto-generated story from Syndicated News Rss Api. News.nandigramtimes.com Staff may not have modified or edited the content body.

Please visit the Source Website that deserves the credit and responsibility for creating this content.)

Watch Live | Source Article