Explainer: कौन हैं गिरमिटिया मजदूर, जो पीएम मोदी के 56 साल बाद गुयाना पहुंचते ही चर्चा में आए

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गुयाना में भारतीय समुदाय से मिलते पीएम मोदी। - India TV Hindi Image Source : X गुयाना में भारतीय समुदाय से मिलते पीएम मोदी।

Explainer: गुयाना में पीएम मोदी के तौर पर कोई प्रधानमंत्री 56 साल बाद उनकी धरती पर पहुंचा है। गुयाना पहुंचते ही राष्ट्रपति मोहम्मद इरफान अली ने गले लगाकर प्रधानमंत्री का स्वागत किया। इस दौरान पीएम मोदी भारतीय समुदाय के लोगों से भी मिले, जिनमें गिरमिटिया मजदूर भी शामिल हैं। गिरमिटिया मजदूर मूलरूप से भारत के ही मूल निवासी हैं, जो अंग्रेजों के राज के समय में गुयाना, ट्रिनिडाड टोबैको, मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम जैसे तमाम देशों में एक अनुबंध के तहत गए। बाद में वह कभी भारत नहीं लौट सके। मगर जिन देशों में मजदूर बनकर गए वहीं अब अपनी मेहनत के दम पर राज करने लगे। गुयाना के राष्ट्रपति मोहम्मद इरफान अली के पूर्वज भी भारतीय मूल के गिरमिटिया मजदूर ही थे। आइये अब आपको बताते हैं कि गिरमिटिया मजदूर कौन हैं और इन देशों तक वह कैसे और क्यों पहुंचे?

भारत में अंग्रेजों के शासन के दौरान उक्त देशों में गुलामी की प्रथा खत्म होने पर मजदूर भी नहीं रहे। ऐसे में काम करवाने के लिए मजदूरों की जरूरत थी। तब भारत से 5 साल के अनुबंध पर इन मजदूरों को 1834 के दशक के दौरान अमेरिकी, अफ्रीकी और यूरोपीय देशों में भेजा गया। वह 5 साल बाद आ तो सकते थे। मगर आने के पैसे नहीं होने से वहीं हमेशा के लिए बसना उनकी मजबूरी हो गई। इस प्रकार गिरमिटियों का इतिहास भारतीय उपमहाद्वीप के लिए एक महत्वपूर्ण और दुखद अध्याय है।

गिरमिटिया कैसे पड़ा नाम

भारत से बाहर भेजे जाने वाले मजदूरों के लिए "गिरमिटिया" शब्द का प्रयोग अंग्रेजों ने किया था। वह भारतीय श्रमिकों को दूसरे देशों में अनुबंध के तहत भेजने को ही गिरमिटिया कहते थे। अनुबंध श्रमिक (indentured laborers)  शब्द "agreement" (अनुबंध) से आया है, क्योंकि इन श्रमिकों को एक अनुबंध पर हस्ताक्षर करने के बाद विदेश भेजा जाता था। गिरमिटियों की कहानी ब्रिटिश उपनिवेशवाद और दासता के साथ गहराई से जुड़ी हुई है। जब ब्रिटिश साम्राज्य ने भारत में औपनिवेशिक शासन को मजबूती से स्थापित किया, तो उसे अपनी ज़मीनों पर काम करने के लिए सस्ते और कड़ी मेहनत वाले श्रमिकों की आवश्यकता थी। भारतीय किसानों की ज़मीन पर भारी कर और कर्ज ने उन्हें अत्यधिक कठिनाइयों में डाल दिया। ऐसे में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय श्रमिकों को अन्य उपनिवेशों में भेजने की योजना बनाई।

इन देशों में भेजे गए गिरमिटिये

भारतीय गिरमिटियों को मुख्यतः फिजी, दक्षिण अफ्रीका, मलेशिया, त्रिनिदाद और टोबैगो, गुयाना, सूरीनाम, और महात्मा गांधी के समय में ज़ांबिया जैसी जगहों पर भेजा गया। इन देशों में चीनी, केले, शक्कर और अन्य फसलें उगाई जाती थीं, और भारतीय श्रमिकों को इन फसलों के उत्पादन में सहायता के लिए भेजा गया था। अनुबंध की शर्तें और कठिनाइयाँ: गिरमिटिया श्रमिकों को अनुबंध पर 5 से 10 साल तक काम करने के लिए भेजा जाता था। इस अनुबंध में श्रमिकों को सस्ते श्रम के बदले में बहुत ही सीमित वेतन और कठिन काम की शर्तें दी जाती थीं। उन्हें अक्सर अपने परिवार से दूर, अनजाने देशों में काम करना पड़ता था, और कई बार यह कार्य परिस्थितियों में कठिन और अव्यवस्थापूर्ण होता था।

दासता और उत्पीड़न का करना पड़ा सामना

गिरमिटिया श्रमिकों को दासों के समान शर्तों में काम करना पड़ता था। हालांकि वे पूरी तरह से दास नहीं थे, लेकिन उनके पास सीमित अधिकार और आज़ादी थी। उन्हें खाने-पीने, स्वास्थ्य सेवाओं और अन्य बुनियादी सुविधाओं में कठिनाइयां झेलनी पड़ती थीं। इसके बावजूद, कई लोग अपने परिवार की आजीविका के लिए इस जीवन को अपनाते थे।  जब भारत से गिरमिटिया श्रमिकों को विदेश भेजा जाता था, तो यह भारतीय समाज पर भी गहरा असर डालता था। कई लोग इसे मजबूरी के कारण करते थे और कुछ के लिए यह एक नया अवसर बनकर सामने आया।

1917 से गिरमिटिया की व्यवस्था हुई खत्म

अंग्रेजों ने 1917 में  गिरमिटिया व्यवस्था को खत्म कर दिया। बावजूद, यह प्रणाली उपनिवेशवाद के तहत भारत के श्रमिक वर्ग के लिए एक कड़ा और गहरी पीड़ा का समय था। आज भी, गिरमिटिया श्रमिकों और उनके परिवारों की विरासत कई देशों में जीवित है, और उनके योगदान को मान्यता दी जाती है। गिरमिटिया श्रमिकों का संघर्ष आज भी कई देशों में याद किया जाता है। फिजी, त्रिनिदाद, गुयाना और मलेशिया जैसे देशों में कई देशों में भारतीय संस्कृति और समुदाय की गहरी छाप देखी जाती है। वहां के समाज में भारतीय जातीयता, धर्म, संस्कृति और भाषा का महत्वपूर्ण योगदान है। गिरमिटिया की जीवन संघर्ष हमें यह प्रेरणा देता है कि कठिन परिस्थितियों में काम करने के बावजूद अपनी मेहनत और ईमानदारी से नया मुकाम हासिल किया जा सकता है। उनकी हिम्मत और संघर्ष की कहानी आज भी प्रेरणा का स्रोत है। 

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