अजब गजब पारम्परिक नाच
बलिया: एक प्राचीन परंपरा, जो समाज की कुरीतियों पर व्यंग्यात्मक प्रहार करती है, खासकर उन समुदायों के लिए जो अनाज भूनने, पानी भरने, और मजदूरी का काम करते हैं. यह परंपरा हास्य और मनोरंजन से भरपूर होती है, और इसे “गोड़ऊ नाच” के नाम से जाना जाता है. इस नाच का आयोजन जन्म से लेकर मृत्यु तक विभिन्न अवसरों पर किया जाता है. हालांकि, यह परंपरा धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है, लेकिन आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी झलक देखने को मिलती है. हाल ही में बलिया के रंग महोत्सव में इस नाच ने राष्ट्रीय स्तर पर दूसरा स्थान प्राप्त किया है.
प्रख्यात इतिहासकार डॉ. शिवकुमार सिंह कौशिकेय बताते हैं, “बलिया जिले में लोक कलाओं की एक समृद्ध परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है. यहां के गोंड़ समुदाय के लोगों की अपनी एक लोकविधा, ‘गोड़ऊ नाच,’ है, जो 19वीं सदी के पहले से अस्तित्व में है. इस नाच में सभी कलाकार इसी समाज से होते हैं.”
अद्भुत और अनोखी परंपरा: पुरुष कलाकारों का श्रृंगार
यह नाच इतनी रोचक होती है कि दर्शक पूरी रात इसे देख सकते हैं. पुरुष कलाकार महिलाओं की तरह श्रृंगार करके साड़ी पहनते हैं और मंच पर नृत्य करते हैं. नाच के दौरान दो जोकर बांस का डंडा (झरनाठ) लेकर स्वांग रचते हैं और उछल-कूद से दर्शकों को हंसाते हैं. हालांकि यह परंपरा अब विलुप्ति के कगार पर है, लेकिन अभी भी ग्रामीण इलाकों में इसे देखा जा सकता है.
गोड़ऊ नाच का सांस्कृतिक महत्व
इस नाच में चार से पांच वादक कलाकार होते हैं, जो हुरुका और झाल बजाते हुए गीत गाते हैं. इन गीतों की शुरुआत कुलदेवता महादेव शंकर, पार्वती, और देवी काली माई से होती है. यह प्राचीन परंपरा समाज की कुरीतियों पर व्यंग्य करती है और इसकी खास बात यह है कि समुदाय के सभी उत्सवों में इसका आयोजन किया जाता है. पहले के समय में बिजली की कमी के कारण केरोसिन की बोतल और कपड़े की बाती के प्रकाश में ही इस नाच का आयोजन किया जाता था, यहां तक कि शादी-बारात जैसे बड़े आयोजनों में भी.
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FIRST PUBLISHED :
October 25, 2024, 12:58 IST