आभासी दुनिया में खोए बच्चों को वास्तविक दुनिया में लाने के कुछ उपाय

3 days ago 2

बस, ट्रेन, सड़क या किसी का घर हो, आजकल हर जगह छोटे से बड़े बच्चों के हाथ में स्मार्टफोन दिख जाना आम बात है. स्मार्टफोन में खोए बच्चों की उनके सामने बैठे हुए पैरेंट्स को भी परवाह नहीं रहती और वक्त के साथ ज्यादा स्क्रीन देखने की वजह से बच्चों के व्यवहार में नकारात्मक प्रभाव दिखने लगते हैं. बच्चे एक दूसरे को देखकर सोशल मीडिया पर अपनी अलग पहचान बनाना चाहते हैं, इस वजह से वह रील्स बनाते हैं और आजकल रील्स बनाते वह कई बार अपने भविष्य के साथ अपनी जान तक गंवा रहे हैं.

भारतीय बच्चों के इंटरनेट इस्तेमाल से जुड़े आंकड़ों की बात करें तो स्टेटिस्ता के अनुसार साल 2021 में देश की कुल इंटरनेट उपयोगकर्ता आबादी में बच्चों की हिस्सेदारी लगभग 14 प्रतिशत थी. स्टेटिस्ता की ही जून 2024 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार शहरी भारत में 9 से 13 वर्ष की आयु के अधिकांश बच्चे प्रतिदिन तीन घंटे से अधिक समय सोशल मीडिया, वीडियो और इंटरनेट पर गेम खेलने में बिताते हैं.

बच्चों पर स्मार्टफोन के ज्यादा प्रयोग की वजह से पड़ रहे नकारात्मक प्रभावों और उसके समाधान को जानने के लिए हमने एम्स में मेडिकल सोशल सर्विस ऑफिसर रोहित गुप्ता और बाल मनोविज्ञान में पीएचडी वसुधा मिश्रा के साथ बातचीत की, वसुधा इन दिनों अमेरिका में बच्चों को हिंदी पढ़ाती हैं.

आजकल हम देखते हैं कि छोटे बच्चों को उनके पैरेंट्स द्वारा व्यस्त रखने, खाना खिलाने के लिए स्मार्टफोन पकड़ा दिया जाता है. किस मनोस्थिति की वजह से ये बच्चे स्मार्टफोन की तरफ आकर्षित हो रहे हैं! इससे बच्चों को क्या नुकसान है और किस तरह उन्हें फोन से दूर रखा जा सकता है?

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इस सवाल पर रोहित गुप्ता कहते हैं पैरंट्स और बच्चे दोनों ही इसके लिए जिम्मेदार हैं. पैरेंट्स सोचते हैं कि मैं अपने काम में व्यस्त हूं तो बच्चों को भी स्मार्टफोन में व्यस्त रख लूं. बच्चे अगर व्यस्त रहेंगे तो हम भी अपना काम आसानी से कर लेंगे.
इसकी वजह से बच्चों का अपने पैरेंट्स की जगह लगाव स्मार्टफोन की तरफ चले जाता है. हर बच्चा खाली मस्तिष्क के साथ पैदा हुआ है और स्मार्टफोन के साथ ज्यादा वक्त बिताने की वजह से वह इसी फोन को अपना सब कुछ मानने लगता है.

वर्चुअल ऑटिज़्म की तरफ बढ़ते बच्चे

जन्म के बाद पहले चार पांच महीने में ही फोन दिखाने की वजह से बच्चों को अपने आसपास के लोगों से मतलब नहीं रहता, वह फोन की दुनिया को ही सच मानने लगते हैं और इस वजह से वह वर्चुअल ऑटिज़्म की तरफ बढ़ने लगते हैं. वर्चुअल ऑटिज़्म, बच्चों में इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स का ज्यादा इस्तेमाल करने की वजह से होती है. इसकी वजह से बच्चों में बोलने और सीखने की क्षमता प्रभावित होने लगती है.

जब यह बच्चे बड़े होने लगते हैं तो वह लोगों से बातचीत करने के बजाए डिजिटल दुनिया को ही सही मानने लगते हैं, उनमें सामाजिकता जन्म नहीं ले पाती है. वयस्क होने पर अपने निजी जीवन में जब बच्चों को कोई दिक्कत आती है तो वह डिजिटल दुनिया में ही अपना समाधान खोजने लगते हैं. इस वजह से ही आजकल के बच्चे आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठाने लगे हैं, पिछले महीने हमने अमेरिका में देखा कि एक चौदह साल के लड़के ने एआई गर्लफ्रैंड की वजह से आत्महत्या कर ली थी.

बच्चों को डिजिटल मीडिया के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए पैरेंट्स को खुद भी त्याग करना होगा. उन्हें बच्चों के सामने फोन इस्तेमाल नहीं करना चाहिए, क्योंकि बच्चा सब कुछ अपने पैरेंट्स को देखकर ही सीखता है, वह ज्यादा फोन चलाएंगे तो वह भी यही सीखेगा.

बच्चों के साथ खुद भी बच्चा बन जाना जरूरी है

रोहित से दूसरा सवाल यह किया गया कि सोशल मीडिया एक आभासी दुनिया है. कई टीनएज लड़के लड़कियों के साथ हमने इसकी वजह से यौन शोषण के केस देखें हैं, कैसे हम इन बच्चों की समझ विकसित करें कि वह आभासी दुनिया के सही गलत का अनुमान खुद लगा सकें.

इस सवाल पर रोहित ने कहा कि पैरेंट्स का किरदार बच्चों के जीवन के साथ हमेशा ही जरूरी बने रहता है. उन्हें 'लालयेत् पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत् ' श्लोक के हिसाब से चलना चाहिए, जिसका अर्थ है सभी पैरेंट्स ने अपने बच्चों को पांच वर्ष तक बहुत प्रेम करना है, इसके बाद पंद्रह वर्ष तक बच्चों के व्यवहार पर पूरी नज़र रखनी है. वह कुछ गलत कर रहा है तो उसे तुरंत समझाना है, जहां उसके साथ गर्म होकर निपटना है, वहां गर्म होना चाहिए और जहां नरम होना हो वहां उसके साथ नरम होकर व्यवहार करना चाहिए.

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इसके बाद सोलह साल से उनके साथ मित्रतापूर्ण व्यवहार करना चाहिए, उससे ऐसा व्यवहार बनाए रखना है कि वह अपनी कोई भी बात अपने पैरेंट्स के साथ साझा कर सके. अगर ऐसा नहीं हो पाया तो वह बाहर के लोगों से अपनी समस्या कहेगा और ऐसा करते वह गलत रास्ते की तरफ जा सकता है.

इस बाजार में कुछ भी स्थाई नहीं है

बच्चों को उनके पैरेंट्स रियलिटी शो में भेजते हैं, हार का उनके मन में क्या असर पड़ता होगा? कैसे इससे बचा जा सकता है, सवाल पर रोहित कहते हैं जल्दी लोकप्रिय होने की चाहत में बच्चों को ऐसी जगह भेजा जाता है. यह रियलिटी शो एक कम्पटीशन है और पैरेंट्स द्वारा उनके बच्चों को यह सिखाया जाना चाहिए कि जीत के साथ हार भी जीवन का एक हिस्सा है. आजकल सोशल मीडिया ट्रोल का चलन भी बढ़ा है, इसलिए बच्चों को नकारात्मक बातों से कैसे दूर रहें, यह सिखाना होगा.

बाजार में सब कुछ बिकता है- अमीरी, गरीबी, सादगी, अय्याशी, बच्चों की मासूमियत तक बिक रही है. बाजार हमेशा एक सा नहीं रहता और बाजार कल किसी और का भी हो सकता है.

बच्चों को यह बताना होगा कि उनके अंदर जो स्किल है उस पर बेहतर काम करें. उन्हें किसी शॉर्ट कट की जगह मेहनत करना सिखाना होगा, यहां हम सचिन तेंदुलकर का उदाहरण दे सकते हैं. सचिन अपनी पढ़ाई के दौरान ही समझ गए थे कि मैं क्रिकेट में अपना कैरियर बना सकता हूं, फिर उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़कर क्रिकेट पर ध्यान दिया. आजकल के बच्चों को अपनी पढ़ाई और स्किल के बीच बैलेंस बनाना होगा.

मेहनत का फल ज्यादा मीठा होता है

रोहित से हमने आखिरी सवाल पूछते आजकल रील्स बनाने के बढ़ते ट्रेंड का कारण जानना चाहा. इस पर रोहित गुप्ता कहते हैं कि बच्चे कपोल कल्पना करते हैं, वह किसी और को सोशल मीडिया पर स्टार बनते देखकर सोचते हैं कि मैं भी ऐसा कर सकता हूं और इसके बाद वह रील बनाते कितना भी बड़ा खतरा मोल ले लेते हैं.

पैरेंट्स को अपने बच्चों को बताना चाहिए कि आप अपनी योग्यता पर विश्वास रखो, फल देर से ही सही पर जरूर मिलेगा. उन्हें अपने बच्चों की हर एक एक्टिविटी पर ध्यान रखना चाहिए, हाल ही में ऑस्ट्रेलिया ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर सोलह साल से कम उम्र के यूजर्स के लिए बैन लगाने का फैसला लिया है और भारत में भी बच्चों के स्मार्टफोन के बढ़ते प्रयोग की वजह से इस तरह के बैन लगाने की आवश्यकता है.

अपनी बात समाप्त करते रोहित ने कहा कि पैरेंट्स को प्रयास करना चाहिए कि डिनर पूरे परिवार का साथ बैठकर ही हो और उस समय किसी भी डिवाइस का प्रयोग न करते बच्चों की समस्याओं को सुना जाए. सम्भव हो सके तो पूरे परिवार को सप्ताह के अंत में एक बार साथ बैठकर बच्चों की हर जिज्ञासाओं को शांत करना चाहिए.

तो ये है रील बनाने की होड़ के पीछे की असली वजह

वसुधा मिश्रा को बच्चों की मानसिक स्थिति पर गहरी समझ है और हमने उनसे इन दिनों बच्चों में रील बनाने की होड़ के पीछे की असली वजह पूछी. वसुधा कहती हैं बच्चों में रील बनाने की होड़ की सबसे बड़ी वजह कम मेहनत से मिलने वाली पब्लिक की अटेंशन है. जो दूसरे कर रहे हैं, उसे देखकर बच्चे सोचते हैं कि यह भला हम इसे क्यों नहीं कर सकते. उन्हें लगता है कि सफलता का मापदंड समाज से मिलने वाली लाइक्स है, जितने लाइक्स उतनी सफलता.
लाइक्स की यही होड़ उनका अपना अस्तित्व बन जाती है और वह इसी में अपना भविष्य देखने लगते हैं.

बच्चों को इस होड़ से बचाए रखने में पैरेंट्स के किरदार पर वसुधा कहती हैं कि अब समय ऐसा आ गया है कि स्मार्टफोन से बच्चों को हमेशा के लिए अलग नहीं रखा जा सकता. उन्हें अपने बच्चों को अच्छे कंटेंट पर काम करने की सलाह देनी चाहिए, पैरेंट्स को चाहिए कि वह बच्चों के काम को प्रोत्साहन देने के साथ उन्हें उसकी क्षण भंगुरता के प्रति मानसिक मजबूती भी देते रहें. उनके मन में स्थापित करते रहें कि जीवन का लक्ष्य ज्यादा लंबा चलने वाला ही होना चाहिए, शौक और स्थायित्व में अंतर बताना बेहद आवश्यक है.

(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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