महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2024 में वोटों की गिनती से यह साफ हो गया है कि राज्य में एक बार फिर महायुती (भाजपा, शिंदे सेना और अजीत पवार की एनसीपी) की सरकार ही बनेगी. चुनाव परिणामों ने कई बातें साफ कर दी हैं. सबसे बड़ी बात यह कि राज्य में असली और नकली शिवसेना का बहस अब खत्म हो जाना चाहिए. वैसे ही, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) को लेकर भी अब यह चर्चा खत्म हो जानी चाहिए कि अजीत पवार ने सही किया या गलत? कम से कम जनता की नजर से. नैतिकता और राजधर्म जैसी बातों का वैसे भी कोई मतलब नहीं रह गया है. इसलिए इन कसौटियों पर न तो जनता नेताओं को परखती है और न नेता इसकी परवाह करते हैं.
अगर हम महाराष्ट्र चुनाव में महायुती और महा विकास अघाड़ी (कांग्रेस, उद्धव सेना और शरद पवार की एनसीपी) के प्रदर्शन का विश्लेषण करें और नतीजों के मायने समझने की कोशिश करें तो मुख्य रूप से चार-पांच बातें सामने आती हैं.
नकद का जोर, मुफ्त का शोर
चुनाव से महज कुछ महीने पहले से महिलाओं को हर महीने 1500 रुपये नकद दिए जाने की स्कीम काम कर गई. महाराष्ट्र चुनाव ने एक बार फिर साबित किया कि जनता को सरकार की ओर से नकद पैसा या मुफ्त में कोई चीज मिल जाए और उसका अच्छा प्रचार हो जाए तो सत्ताधारी पार्टी को इसका फायदा मिल जाता है. विशेषज्ञ, कोर्ट या कोई और इस बात को लेकर कितना भी आगाह करें कि इस तरह की योजनाओं से अंतत: जनता का ही नुकसान है, उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज ही साबित होती है. एक सबसे ताजा उदाहरण दिल्ली का लेते हैं.
दिल्ली हाईकोर्ट ने कल (22 नवंबर) ही दिल्ली सरकार और नेताओं की खिंचाई करते हुए कहा कि वे केवल मुफ्त की चीजें (फ्रीबीज) देने पर खर्च करेंगे. इनसे आपका इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर नहीं होगा, बल्कि सिर्फ यह सुनिश्चित होगा कि आप जहां हैं, वहीं पड़े रहेंगे. आज नेता सिर्फ नारे बेच रहे हैं और हम उनके झांसे में आ रहे हैं. नागरिक के तौर पर हमें यह तय करना है कि हमारे पास 3.3 करोड़ लोगों के हिसाब से इंफ्रास्ट्रक्चर है या नहीं? यही मूल मुद्दा है जिस पर हमें निर्णय लेने की जरूरत है.
हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी की और दिल्ली की सत्ताधारी आम आदमी पार्टी (आप) के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने कल ही ‘रेवड़ी पर चर्चा’ नाम से चुनाव अभियान शुरू किया. इसमें पार्टी लोगों को यह बताएगी कि दिल्ली सरकार द्वारा दी गई ‘रेवडि़यों’ (मुफ्त में दी गई सुविधाओं) से जनता की जिंदगी कैसे बदल गई!
तो महाराष्ट्र की जनता ने भी राज्य सरकार की ‘लाड़की बहिन योजना’ पर यकीन किया. वैसे वादा तो कांग्रेस ने भी किया था कि उसकी सरकार बनी तो महिलाओं को नकद पैसे मिलेंगे, लेकिन वोटर्स ने ज्यादा भरोसा उस पर किया जिसने पैसे देना शुरू कर दिया था और सत्ता में वापसी पर 600 रुपये बढ़ा कर देते रहने का वादा किया था. जनता ने इस तथ्य को नजरअंदाज किया कि महाराष्ट्र पर कर्ज का बोझ बीते दस सालों में ढाई गुने से भी ज्यादा हो गया है, जो अभी और बढ़ने वाला है. महाराष्ट्र के करीब 10 करोड़ मतदाताओं में से आधी महिलाएं हैं और इनमें से आधी महिलाओं को लाड़की बहिन योजना का फायदा देने की योजना है.
आरएसएस का हाथ, भाजपा के साथ
लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र और बाकी देश में भाजपा के खराब प्रदर्शन के बाद इस चुनाव में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने भाजपा का पूरा साथ दिया. लोकसभा चुनाव में कहा गया था कि आरएसएस के कार्यकर्ता जमीन पर सक्रिय नहीं थे, जिसका खामियाजा भाजपा को चुनाव में भुगतना पड़ा था. लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद आरएसएस के कई नेताओं के ऐसे बयान भी आए जिनसे साफ था कि चुनाव के दौरान भाजपा और संघ में दूरी बनी हुई थी. तब से इस विधानसभा चुनाव के बीच यह दूरी पाट ली गई. अपना मुख्यालय महाराष्ट्र (नागपुर) में होने के चलते एक तरह से संघ इस नैतिक दबाव में भी था कि भाजपा राज्य की सत्ता में वापसी करे.
संघ मुख्य रूप से दो-तीन अहम काम करता है जिसका बीजेपी को जबरदस्त चुनावी फायदा मिलता है. वह मतदाताओं को वोट डालने और भाजपा के पक्ष में वोट डालने के लिए अलग ही अंदाज में प्रेरित करता है. साथ ही, भाजपा को जरूरी इनपुट भी देता है, जिसके आधार पर रणनीति बना कर अपने पक्ष में माहौल बनाने में बड़ी मदद मिलती है. संघ विपक्ष के नैरेटिव की काट बना कर भाजपा के पक्ष में माहौल बनाने में भी मदद करता है. मतदान से महज दो दिन पहले भी आरएसएस ने मुंबई में एक बैठक की थी, जिसमें देवेंद्र फड़णवीस सहित भाजपा के कई नेता शामिल हुए थे. आरएसएस से जुड़े तमाम संगठनों के प्रतिनिधि इस बैठक में शामिल हुए थे.
परसेप्शन की लड़ाई में भाजपा आगे
चुनाव परसेप्शन की लड़ाई से जीते जाते हैं. इस लड़ाई में भाजपा अपने विरोधियों से कहीं आगे रही है. चुनाव के दौरान भी कई मामले ऐसे आए जहां कांग्रेस इस लड़ाई में कमजोर साबित हुई. एक ऐसा ही मामला चुनावी वादे करने से जुड़ा आया. बीच चुनाव में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का अपने नेता को यह कहना कि चुनावी वादे करते समय यह ध्यान में रखें कि इसके लिए बजट है या नहीं, वैसे तो बड़ी सामान्य सी बात थी कि लेकिन, भाजपा ने इसे अपने पक्ष में अच्छी तरह भुना लिया. भाजपा ने यह परसेप्शन बनाने की मजबूत कोशिश की कि कांग्रेस बिना कुछ सोचे-समझे वादे कर देती है और उन्हें पूरा नहीं करती, जबकि भाजपा जो कहती है, वह करती है.
इसी तरह कांग्रेस ने आरक्षण और जातिगत जनगणना की बात की तो भाजपा ने अलग ही तरीके से इसकी काट पेश की. योगी आदित्य नाथ ने ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ कह कर जहां हिंदू ध्रुवीकरण का कार्ड खेला, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी बात को दूसरे अंदाज में कह कर एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश की. उन्होंने कहा- एक रहेंगे तो सेफ रहेंगे. इसी बीच आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी कह दिया कि हिंदुओं का एक रहना जरूरी है. इन नारों के बीच कांग्रेस के नारे दब गए और भाजपा उसके बारे में ऐसा परसेप्शन बनाने में कामयाब रही कि कांग्रेस बांटने की बात करती है.
महाराष्ट्र चुनाव के नतीजों के पीछे जहां इन कारणों को देखा जा सकता है, वहीं इन नतीजों के कुछ मायने भी हैं. पहला तो यही कि इन नतीजों ने साबित कर दिया है कि असली शिवसेना एकनाथ शिंदे वाली शिवसेना है, न कि उद्धव ठाकरे वाली. चुनाव नतीजों ने उद्धव ठाकरे के राजनीतिक अस्तित्व पर संकट खड़ा कर दिया है. अब पहली बार शिवसेना बाला साहेब ठाकरे के परिवार की छत्रछाया से बाहर निकल कर फलने-फूलने वाली पार्टी बनने जा रही है.
ऐसा ही शरद पवार के लिए हुआ है. उनके राजनीतिक जीवन के अंतिम चरण में जनता ने उन्हें नकार दिया है और उनसे दगा करने वाले भतीजे अजीत पवार को अपना लिया है. मतलब जनता ने भी इस बात पर मोहर लगा दी है कि अजीत पवार ने जो किया, ठीक किया. ताउम्र राजनीतिक क्षत्रप बन कर राजनीति करने वाले शरद पवार की राजनीतिक पारी के अंत के लिहाज से यह सम्मानजनक संकेत नहीं है.
इस चुनाव परिणाम से बीजेपी को गुजरात, मध्य प्रदेश जैसे राज्यों की तरह महाराष्ट्र में भी अपना आधिपत्य बनाने के लिए एक मंच मिला है. कांग्रेस का प्रभुत्व तो राज्य से पहले ही खत्म हो गया था. वैसा प्रभुत्व बनाने के लिए भाजपा को पांच साल का वक्त मिल गया है.
FIRST PUBLISHED :
November 23, 2024, 14:25 IST