उत्तर प्रदेश में हुए नौ उपचुनावों के परिणाम पहली नज़र में बता रहे हैं कि इस साल के शुरू में हुए लोकसभा चुनावों में इंडिया गठबंधन ने जो हवा बाँधी थी, वह अब फुस्स हो चुकी है. बीजेपी ने 2024 के आश्चर्यजनक जनादेश के कुछ महीने बाद ही पाँसा पलट दिया. ‘इंडिया’ गठबंधन इसबार पूरी तरह समाजवादी पार्टी के हाथों में चला गया. वह इस हद आत्मविश्वास से भरा था कि उसने नौ के नौ स्थानों पर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी उतारे. बावजूद इसके उसे सीट और वोट दोनों के नुकसान का सामना करना पड़ा है. कुंदरकी में सपा की पराजय खासतौर से अपमानजनक है.
इन परिणामों से एक तरफ राज्य में योगी आदित्यनाथ की सरकार को अब विरोधी-चुनौती का मुकाबला करने में आसानी होगी, वहीं पार्टी की आंतरिक राजनीति में भी उनकी स्थिति बेहतर हो जाएगी. तमाम सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलुओं को देखते हुए इन नौ सीटों के चुनाव ‘भारतीय राजनीति की यूपी-प्रयोगशाला’ साबित होंगे और इनका असर बहुत दूर तक होगा. परिणामों के मत-विश्लेषण से यह भी पता लगेगा कि पीडीए के ‘पी’ ‘डी’ और ‘ए’ कहाँ हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को जिस ‘अपमान’ का सामना करना पड़ा था, उसका प्रतिकार उसने इस चुनाव में कर लिया है. शायद उसने ‘इंडिया’ के गुब्बारे की हवा निकालने के कुछ सूत्र खोज लिए हैं.
इन नौ सीटों को यूपी का राजनीतिक सैंपल मान सकते हैं. ये सीटें पूरे राज्य में फैली हुई हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश में तीन, पश्चिम में चार और मध्य तथा ब्रज क्षेत्र में एक-एक. फिर सोशल-इंजीनियरी के लिहाज से भी इनका फलक काफी व्यापक था. अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित एक सीट और कुछ ऐसे क्षेत्र, जहाँ मुस्लिम वोट निर्णायक होते हैं. सोशल-इंजीनियरी को देखते हुए बीजेपी के लिए यह मुश्किल चुनाव था.
उपचुनाव आमतौर पर तबतक खास मायने नहीं रखते, जबतक राजनीति की व्यापक योजना या सरकार के अस्तित्व के लिए उनका कोई महत्व न हो. पर यूपी के इन चुनावों का इसबार खासा महत्व है. इस वक्त लखनऊ या दिल्ली की सरकारों पर इनसे कोई फर्क भले ही नहीं पड़े, पर आने वाले समय में इन दोनों पर इनका असर होगा.
‘बँटेंगे तो कटेंगे’
राज्य विधानसभा के 2027 में होने वाले चुनाव की सोशल-इंजीनियरी के लिहाज से ये चुनाव बहुत महत्वपूर्ण साबित होंगे. यह इंजीनियरी अखिलेश यादव के पीडीए से जुड़ी है, जिसके जवाब में योगी ने नारा दिया, ‘बँटेंगे तो कटेंगे.’ सपा ने जवाब में नारा दिया, ‘जुड़ेंगे तो जीतेंगे.’ इसे सामने रखते हुए सपा ने चार मुसलमान, तीन पिछड़े वर्ग के और दो दलित प्रत्याशियों को टिकट दिए. इन दोनों आह्वानों के जवाब में लोकसभा चुनाव में लगभग अनुपस्थित बहुजन समाज पार्टी ने भी ‘बसपा से जुड़ेंगे तो आगे बढ़ेंगे, सुरक्षित रहेंगे’ के नारे के साथ पलट कर हस्तक्षेप किया. इससे पीडीए का ‘डी’ प्रभावित हुआ होगा. कितना प्रभावित हुआ, इसका पता वोटों के विश्लेषण से लगेगा. यह तथ्य कम महत्वपूर्ण नहीं कि इन नौ में से सात जगहों पर बसपा तीसरे स्थान पर रही है.
लोकसभा चुनाव में सपा ने राज्य में 80 में से 37 सीटें जीतकर न केवल बीजेपी को, बल्कि अपने आप को भी चौंका दिया था. अब सपा यह साबित करना चाहती थी कि लोकसभा चुनावों में उसका प्रदर्शन कोई अप्रत्याशित बात नहीं थी और उसके समर्थन के बगैर कांग्रेस का यूपी में वज़ूद संभव ही नहीं है. 2027 के विधानसभा चुनावों से पहले वह राज्य में अपनी स्थिति इतनी मजबूत कर लेना चाहती है कि कांग्रेस उसकी शरण में रहने को मजबूर हो जाती. इन चुनावों में सपा की सख्त अनदेखी से नाखुश कांग्रेस ने उसके उम्मीदवारों का समर्थन करके विरोधी-एकता के लिए काम करने का वादा ज़रूर किया, लेकिन सपा की विफलता से अब वह भीतर ही भीतर खुश हो, तो कोई हैरत नहीं होगी.
किधर जाएगा पीडीए का ‘डी’
अखिलेश जब से सपा अध्यक्ष बने हैं, तब से वे सोशल इंजीनियरिंग और गठबंधन की राजनीति के साथ प्रयोग कर रहे हैं. सोशल-इंजीनियरिंग में उनकी नवीनतम भेंट है पीडीए. गौर से देखें, तो इसमें नया कुछ नहीं है. मुलायम सिंह और लालू यादव के ‘एमवाई’ (मुस्लिम-यादव) में दलित को और फिट कर दिया गया है. इससे पहले, चौधरी चरण सिंह ने 1960 के दशक में अजगर (अहीर-जाट-गुज्जर-राजपूत) का सहारा लिया था, बाद में उसमें ‘एम’ जोड़कर उसे मजगर (मुस्लिम, अहीर/यादव, जाट, गुज्जर, राजपूत) बना दिया. मुलायम सिंह यादव ने ‘एमवाई’ (मुस्लिम-यादव) का इस्तेमाल किया, जो बिहार में लालू यादव का भी सामाजिक समीकरण था.
पीडीए में अंतर्निहित स्थायी-विसंगतियाँ हैं. सामाजिक रूप से, दलितों और ओबीसी के रिश्ते संघर्षपूर्ण हैं. ज्यादातर दलित भूमिहीन हैं, जो भूमि-स्वामी ओबीसी के खेतों पर काम करते हैं. यह रिश्ता दलितों और ओबीसी को राजनीतिक रूप से एक-दूसरे का प्रतिस्पर्धी बनाता है, दोस्त नहीं. सामाजिक-आर्थिक कारणों से दलित-ओबीसी गठबंधन अस्वाभाविक है.
लोकसभा चुनाव में सपा+कांग्रेस की सफलता का श्रेय दलितों और ओबीसी के बीच प्रचारित इस नैरेटिव को गया कि भाजपा का ‘अबकी-बार, चार-सौ-पार’ का दावा बाबा साहब आंबेडकर के संविधान को ध्वस्त करने और आरक्षण को खत्म करने के लिए है. उसका असर अस्थायी था, बल्कि उसका नकारात्मक असर अब दिखाई पड़ रहा है.
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FIRST PUBLISHED :
November 23, 2024, 14:07 IST