महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में भाजपा नीत महायुति की एकतरफा जीत ने एक बार फिर से यह साबित कर दिया है कि कोई भी चुनाव मजबूत सामूहिक नेतृत्व, जमीनी तैयारी व परिश्रम और लोक-लुभावन योजनाओं के एक सटीक मिश्रण के बलबूते ही जीता जा सकता है. कांग्रेस-नीत विपक्ष ने लोकसभा चुनावों के दौरान जो एक प्रभावी नैरेटिव बनाया था, उसका विस्तार वह महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्य के विधानसभा चुनावों तक करने में विफल रहा.
इन चुनावों में जहां एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘एक हैं तो सेफ हैं’ जैसा पॉजिटिव कैम्पेन चला रहे थे, तो दूसरी ओर योगी आदित्यनाथ का निगेटिव नारा ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ भी चल रहा था. इन दोनों नारों के बीच मुस्लिम संगठनों की तरफ से महाविकास अघाड़ी (एमवीए) को वोट देने की अपील ने तो मानो भाजपा-नीत गठबंधन की मुंहमांगी मुराद पूरी कर दी.
हालांकि महायुति की जीत केवल हिंदुत्व के आधार पर हुई, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता. अगर ऐसा ही होता तो झारखंड में भी इसे जीत मिलती. महाराष्ट्र में जीत की एक वजह मजबूत सामूहिक और स्थानीय नेतृत्व भी रहा.
इसके अलावा जीत का सबसे बड़ा फैक्टर रहा ‘लाडकी बहिन योजना’. यह महायुति सरकार के लिए वैसे ही मास्टरस्ट्रोक साबित हुई, जैसे पिछले साल मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में ‘लाडली बहन योजना’ ने शिवराज सिंह के लिए काम किया था. फिर हरियाणा की तरह आरएसएस ने महाराष्ट्र में भी सैकड़ों सभाएं कर बीजेपी और हिंदुत्व के एजेंडे को जमीनी स्तर पर मजबूती प्रदान की.
फेल हो गया भ्रष्टाचार और अडाणी का मुद्दा
भ्रष्टाचार को लेकर राहुल गांधी की दौड़ अडाणी से अडाणी ही रही है. भ्रष्टाचार केवल तब प्रभावी मुद्दा बनता है, जब वह सीधे आम आदमी के जीवन को प्रभावित करता है, जैसे अगर भ्रष्टाचार की वजह से महंगाई बढ़ रही है तो यह चुनावी मुद्दा बन सकता है. लेकिन राहुल की अगुवाई वाला विपक्ष यह समझने में पहले भी नाकाम रहा और अब दुबारा से विफल साबित हुआ है. इससे पहले कांग्रेस का राफेल का मुद्दा भी नहीं चल पाया था.
विफल रणनीतिकार पर भरोसा गलत साबित हुआ
विफल चुनाव रणनीतिकार सुनील कोंगोलू पर भरोसा बनाए रखना भी कांग्रेस के लिए भारी पड़ा. हरियाणा और जम्मू-कश्मीर चुनावों के दौरान सुनील ने जम्मू-कश्मीर का चुनाव अभियान संभालने से इनकार कर दिया था और केवल हरियाणा पर ध्यान केंद्रित किया था. हुआ यह कि कांग्रेस को हरियाणा में बुरी तरह से हार झेलनी पड़ी, जबकि एनसी-कांग्रेस गठबंधन ने जम्मू-कश्मीर में जीत दर्ज की. इसी तरह सुनील ने झारखंड को नजरअंदाज कर केवल महाराष्ट्र पर ध्यान केंद्रित किया था.
कांग्रेस ने महाराष्ट्र में अपना सबसे खराब प्रदर्शन किया है, जबकि झारखंड में इंडिया गठबंधन फिर से सत्ता में आ गया है. कांग्रेस के लिए वे ‘उलटा पारस’ साबित हो रहे हैं. वे जिसे हाथ लगाते हैं, वह ‘मिट्टी’ बन जाता है.
झारखंड में सहानुभूति वोट!
फ्रांसीसी अखबार ‘ले मोंडे’ ने कभी टिप्पणी की थी, ‘राजनीतिक कैदियों को भारत में अक्सर शहीदों का दर्जा दे दिया जाता है, जहां जेल सत्ता का प्रवेश द्वार बन जाती है.’ हेमंत सोरेन के मामले में भी यही हुआ है. उनके कथित भ्रष्टाचार को भूलकर मतदाता उनके साथ लामबंद हो गए. झारखंड ने यह भी बता दिया है कि वहां के आदिवासी मतदाताओं को केवल हिंदू केंद्रित मुद्दों से प्रभावित नहीं किया जा सकता. आदिवासी बेल्ट में भाजपा की क्या रणनीति होनी चाहिए, इससे हो सकता है भाजपा को कुछ सबक मिले.
इंडिया गठबंधन का क्या होगा?
एमवीए की हार ने इंडिया गठबंधन के भविष्य पर भी सवालिया निशान लगा दिए हैं. भाजपा के साथ गठबंधन करने से शिंदे और अजीत पवार को तो लाभ हुआ, जबकि कांग्रेस के साथ गठबंधन करने से उद्धव ठाकरे और शरद पवार का प्रदर्शन कमजोर हो गया. ऐसे में इंडिया के अन्य छोटे घटक दलों का रुझान भविष्य में अपने-अपने हितों के मद्देनजर ‘इंडिया’ से हटकर एनडीए की तरफ हो सकता है.
महाराष्ट्र में तो कांग्रेस ने खराब प्रदर्शन किया ही, झारखंड में भी भाजपा से मुकाबला झारखंड मुक्ति मोर्चा ही कर पाया.
राज्य में जहां-जहां भाजपा का कांग्रेस से मुकाबला रहा, वहां भाजपा ने बेहतर प्रदर्शन किया. इससे पहले पश्चिम बंगाल में टीएमसी का दावा था कि उसने लोकसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन इसलिए किया, क्योंकि वहां कांग्रेस से उसका गठबंधन नहीं था.
भविष्य के लिए निकले कुछ सवाल…
- जिस तरह से हेमंत सोरेन की जेल यात्रा ने उन्हें सियासी फायदा पहुंचाया है, अगले साल की शुरुआत में जब दिल्ली में विधानसभा चुनाव होंगे तो क्या उनमें अरविंद केजरीवाल को भी ऐसा ही फायदा मिलेगा?
- क्या दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी अब कांग्रेस के साथ गठबंधन न करते हुए अकेले के दम पर चुनाव लड़ना चाहेगी? क्योंकि अब हर क्षेत्रीय पार्टी को कांग्रेस एक बोझ जैसी दिखाई दे रही है.
- उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में समाजवादी पार्टी ने बेहद खराब प्रदर्शन किया है. सपा सहित क्या अन्य क्षेत्रीय दलों को अपनी रणनीतियों में बड़े बदलाव की जरूरत नहीं है?
- महाराष्ट्र में एमवीए की हार शरद पवार और उद्धव ठाकरे के लिए एक बड़ा झटका है. क्या यह उनकी राजनीतिक यात्रा का अंत साबित हो सकता है?
‘ब्रांड राहुल गांधी’ को झटका, प्रियंका का उभार!
जून 2024 में राहुल गांधी एक मजबूत नेता और नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में उभर रहे थे, को अब छह महीनों के दौरान ही विधानसभा चुनावों में खराब प्रदर्शन का सामना करना पड़ा है. इससे उनकी सियासी साख को ठेस पहुंचेगी. उन्हें समझना होगा कि वे केवल अडाणी और जाति जनगणना जैसे मुद्दों पर फोकस करके ही बड़ी सियासी बाजियां नहीं जीत सकते. वहीं वायनाड में प्रियंका गांधी की जीत ने कांग्रेस के अंदर उनकी और उनकी टीम की ताकत को बढ़ा दिया है. इससे प्रियंका गांधी और महत्वपूर्ण भूमिका में आ सकती हैं.
इधर कांग्रेस हाईकमान को भी यह समझना होगा कि चुनावों में जीत मैदानी तैयारियों, मुद्दों और कॉडर से मिलती है. वह केवल सुनील कोंगोलू जैसे रणनीतिकारों के भरोसे नहीं रह सकती. कांग्रेस के लिए यह समय अपने थके हुए नेताओं को साइडलाइन कर नई पीढ़ी को नेतृत्व सौंपने का भी है.
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FIRST PUBLISHED :
November 23, 2024, 21:09 IST