30 नवंबर और 1 दिसंबर को इस मेले का आयोजन होगा.
देहरादून. उत्तराखंड की राजधानी देहरादून का खलांगा स्मारक एक ऐतिहासिक स्थल है, जहां हर साल बलभद्र खलंगा विकास समिति मेले का आयोजन करती है. इस साल देहरादून के सहस्त्रधारा के नालापानी स्थित खलंगा स्मारक में 50वें मेले का आयोजन किया जाएगा. 30 नवंबर और 1 दिसंबर को इस मेले का आयोजन होगा, जहां गोर्खाली संस्कृति की झलक देखने के लिए मिलेगी. बलभद्र खलंगा विकास समिति नालापानी के अध्यक्ष विक्रम सिंह थापा ने लोकल 18 से कहा कि मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा, जिसमें गोर्खाली ही नहीं बल्कि गढ़वाली, कुमाऊंनी लोकनृत्य और लोकगीतों से जुड़े रंगारंग कार्यक्रम होंगे.
उन्होंने कहा कि मेले में गोर्खाली व्यंजनों का स्वाद भी ले सकेंगे. यहां स्टॉल लगाए जाएंगे, जहां से आप गोर्खाली परिधान और आभूषण ले सकते हैं. यहां गोरखाओं की वीरता का प्रतीक मशहूर खुकुरी डांस और भारतीय गोरखा समुदाय की गौरवमयी लोक संस्कृति को दर्शाने के लिए प्राचीन गोर्खाली नो वाद्ययंत्र (नौमती) बाजा कलाकारों द्वारा मनमोहक प्रस्तुतियां दी जाएंगी.
वीर बलभद्र थापा और 600 सैनिकों की वीरगाथा
विक्रम सिंह थापा ने कहा कि साल 1814 में गोर्खाली और उत्तर भारत के कुठ गढ़वाली, कुमांऊनी और स्थानीय योद्धाओं का नेतृत्व करते हुए सेनापति बलभद्र थापा ने इसी जगह पर अदम्य साहस का परिचय देकर तीन बार अंग्रेजों के आक्रमण को पूरी तरह विफल किया था. इस तरह पहली बार अंग्रेजी साम्राज्य के बढ़ते हुए प्रभुत्व को देश में किसी सेनानायक ने सफलतापूर्वक चुनौती दी थी और यह साबित किया था कि अंग्रेजों की बढ़ती हुई ताकत को रोका जा सकता है. इस युद्ध में बलभद्र के लगभग 600 सैनिकों, वीरांगनाओं और बच्चों ने अपने प्राचीन और खुद के बनाए गए हथियारों जैसे- खुकुरी, भाला-बरठी, धनुष बाण और भरवा बंदूक से 3500 से भी ज्यादा अनुशासित और आधुनिक हथियारों से धनी ब्रिटिश सेना को लोहे के चने चबाने पर मजबूर कर दिया था.
अंग्रेजों ने बंद कर दिया था एकमात्र पानी का स्रोत
उन्होंने कहा कि खलंगा पर हमले के दौरान गोरखा सैनिकों ने अंग्रेजी सेना के सबसे योग्य जनरल रॉबर्ट रोलो जिलेस्पी को मार गिराया था. इस युद्ध में बहुत बड़ी संख्या में ब्रिटिश सैनिक और अधिक अधिकारी मारे गए और हताहत हुए थे. लाचार होकर उन्हें पीछे हटना पड़ा और अपने आक्रमण को और अधिक सैन्य शक्ति के साथ तक स्थगित करना पड़ा था. गोरखा सैनिकों की रणनीति के चलते अंग्रेजी सेना का कोई भी प्रयास उनके किले में कब्जा करने में सफल नहीं हो सका. आखिर में उन्होंने एकमात्र पानी के स्रोत को बंद कर दिया था. ऐसे में मृतकों और घायलों की बढ़ती संख्या और पानी की किल्लत को ध्यान में रखते हुए बलभद्र थापा ने अपने बचे हुए सैनिकों की जान को जोखिम में डालना उचित नहीं समझा, इसलिए वह अपने लगभग 70 सैनिकों, वीरांगनाओं और बच्चों को साथ सिरमौर जिले में चले गए. उन्होंने कहा था, ‘मेरे जीते जी खंलगा को नहीं जीत सकते. मैं स्वेच्छा से इसे छोड़ रहा हूं.’ उनकी बहादुरी को देखते हुए अंग्रेजों ने अपने सैनिकों के साथ-साथ गोर्खाली वीरों की बहादुर की निशानी के तौर पर इसका निर्माण करवाया था, जिसे वर्तमान में पुरातत्व विभाग ने संरक्षित किया हुआ है.
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FIRST PUBLISHED :
November 29, 2024, 14:00 IST