Last Updated:January 18, 2025, 23:47 IST
Muri Mela: बांकुड़ा का मुरी मेला अनोखी परंपराओं का संगम है, जो न केवल संस्कृति को संरक्षित करता है, बल्कि सामूहिकता और रिश्तों को भी मजबूती देता है. यह मेला हर साल मकर संक्रांति के समय आयोजित होता है.
बांकुड़ा जिले के सिमलापाल ब्लॉक के पुखुरिया गांव में लगने वाला मुरी मेला एक अनोखी परंपरा को सहेजे हुए है. आम मेलों से अलग, यहां न तो बड़ी-बड़ी दुकानें सजती हैं और न ही किसी तरह का हंगामा देखने को मिलता है. इस मेले की खासियत है यहां का सांस्कृतिक जुड़ाव और सामूहिक भोजन. हजारों लोग एक जगह जुटते हैं, अपने घर से लाए भोजन को मिल-बांटकर खाते हैं और एक-दूसरे के साथ समय बिताते हैं.
मार्गादिसिनी की पवित्र पूजा का हिस्सा
यह मेला ग्राम देवता ‘मार्गादिसिनी’ की वार्षिक पूजा के अवसर पर आयोजित किया जाता है. मकर संक्रांति के दिन से शुरू होने वाला यह मेला तीन-चार दिनों तक चलता है. स्थानीय लोगों के अनुसार, यह परंपरा सैकड़ों साल पुरानी है. किंवदंती है कि एक बुजुर्ग व्यक्ति को मार्गादिसिनी ने स्वप्न में विशेष पूजा और मेले की शुरुआत का आदेश दिया था. उसी दिन से यह मेला हर साल आयोजित किया जाता है.
मुरी और रिश्तों का जुड़ाव
इस मेले में हर व्यक्ति अपने घर से ‘मुरी’ लाता है, जिसे गांव के सामूहिक स्थान पर ग्राम देवता के सामने खाया जाता है. बुजुर्गों का मानना है कि साथ बैठकर खाने और खेलों में भाग लेने से रिश्ते मजबूत होते हैं. यह परंपरा न केवल गांववासियों को जोड़ती है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी एकता और मेल-जोल का संदेश देती है.
सर्दियों की धूप में मेलजोल का आनंद
सर्दियों की गुनगुनी धूप में 7 साल के बच्चों से लेकर 77 साल के बुजुर्ग तक, हर कोई इस मेले में शामिल होता है. सुबह-सुबह यहां कपड़ों की कुछ छोटी दुकानें लगती हैं, लेकिन मुख्य आकर्षण भोजन और लोगों का मिलन है. इस मेले में खरीदारी का शोर नहीं, बल्कि एक सुकूनभरी सामूहिकता देखने को मिलती है.
ग्राम्य संस्कृति का प्रतीक
मुरी मेला सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि ग्राम्य संस्कृति का प्रतीक है. यह मेला सिखाता है कि आधुनिकता के इस दौर में भी पुराने रीति-रिवाज और परंपराएं हमें जोड़ने में अहम भूमिका निभा सकती हैं. सैकड़ों साल पुरानी यह परंपरा हर साल गांव को जीवंत और एकजुट करती है.
First Published :
January 18, 2025, 23:47 IST