जानिए किन 5 कारणों से अहम है महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव का रिजल्ट

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महाराष्‍ट्र और मुंबई के मतदाताओं ने थोड़ा जोर तो लगाया, पर मतदान ‘ऐतिहासिक’ नहीं बन पाया. वैसे, यह भी कम बड़ी बात नहीं है कि 30 साल में सबसे ज्‍यादा मराठी और मुंबईवासी वोट देने निकले. पूरे महाराष्‍ट्र में जहां 65 फीसदी के साथ 30 साल में सबसे ज्‍यादा मतदान दर्ज हुआ, वहीं मुंबई में महज 55 फीसदी पर ही ‘ऐतिहासिक वोटिंग’ हो गई. मतदाताओं के बनाए इस ‘रिकॉर्ड’ से चुनाव लड़ने वाले दोनों ही पक्ष अपने आप को ‘उत्‍साहित’ दिखा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि उनकी नींद भी उड़ी हुई है. दोनों पक्ष यह विश्‍लेषण करने में लगे हैं कि वोट पर्सेंटेज में बढ़ोतरी सत्‍ता पक्ष के समर्थन में है या सत्‍ता विरोधी लहर का नतीजा है या फिर मतदाताओं की संख्‍या में वृद्धि का सामान्‍य असर है?

बढ़े मतदान प्रतिशत का असर क्‍या?
वैसे, देखा जाए तो पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में इस बार करीब 3.5 फीसदी ज्‍यादा वोटिंग हुई है. 2019 की तुलना में इस बार मतदाता 9.5 प्रतिशत ज्‍यादा थे. इसलिए मतदान प्रतिशत में बढ़ोत्‍तरी कोई अप्रत्‍याशित नहीं है, लेकिन 23 नवंबर को आने वाले परिणामों पर इनका खासा असर हो सकता है. खासकर कांटे की टक्‍कर वाली सीटों पर. लोकसभा चुनाव में हमने देखा कि दोनों गठबंधनों में शामिल मिले वोटों में अंतर बड़ा मामूली (महज 1.2 प्रतिशत) था, लेकिन इससे सीटों में बड़ा अंतर आ गया था. लोकसभा चुनाव में महायुती (बीजेपी, शिंदे सेना, अजीत पवार एनसीपी) को कुल 42.71 प्रतिशत वोट मिले थे, जबकि महा विकास अघाड़ी (कांग्रेस, उद्धव सेना, शरद पवार एनसीपी) को 43.91 फीसदी. लोकसभा चुनाव में वोटिंग पर्सेंटेज 61.39 था.

मुंबई पर दबदबा किसका?
मुंबई में करीब 55 फीसदी मतदान हुआ. यह 1995 (58.7 प्रतिशत) के बाद सबसे ज्‍यादा है. मुंबई के लिए जहां वोटिंग का आंकड़ा उल्‍लेखनीय है, वहीं चुनाव परिणाम भी मुंबई की राजनीति को नई दिशा देने वाला होगा. चाहे वह किसी के भी पक्ष में हो. परिणामों से यह तय होगा कि शिवसेना का कौन सा गुट मुंबई पर हावी रहेगा? और यह भी कि भाजपा और कांग्रेस में से किसी राष्‍ट्रीय पार्टी का राजनीतिक दबदबा देश की आर्थ‍िक राजधानी पर रहेगा?

मुंबई देश की पहली महानगरी है जहां मुंबई और महाराष्‍ट्र की बात करते हुए एक स्‍थानीय पार्टी का जन्‍म हुआ और उस पार्टी ने कांग्रेस का आधिपत्‍य खत्‍म करते हुए मुंबई पर अपना राजनीतिक दबदबा कायम किया. एक समय ऐसा था जब मुंबई की तीन दर्जन सीटों में से तीन-चौथाई पर कांग्रेस का कब्‍जा हुआ करता था. 1990 का दशक आते ही शिवसेना ने बीजेपी के साथ मिलकर उसका दबदबा खत्‍म कर दिया. 1995 और 2019 में तो इस गठबंधन को क्रमश: 88.2 और 83.3 प्रतिशत वोट मिले थे. 2004 और 2009 में एनसीपी के साथ मिलकर कांग्रेस ने मुंबई में अपना राजनीतिक प्रभुत्‍व कायम किया था, लेकिन यह 2014 और 2019 में बरकरार नहीं रह सका. साल 2004 और 2009 में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को 55 फीसदी से ज्‍यादा वोट मिले थे. 2024 का चुनाव यह भी तय करेगा कि क्‍या मुंबई में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन का दौर लौटेगा? वैसे, यह सवाल ज्‍यादा चुनौतीपूर्ण है, क्‍योंकि इस बार कांग्रेस का गठबंधन पूर्ण एनसीपी से नहीं है, जिस एनसीपी से उसका गठबंधन है वह दो धड़ों में टूट चुकी पार्टी के शरद पवार वाले गुट से है.

शिवसेना के किस गुट का कितना असर?
23 नवंबर को आने वाले परिणाम यह भी तय करेंगे कि मुंबई का किंग कौन? पिछले दो विधानसभा चुनावों में भाजपा मुंबई की सबसे बड़ी पार्टी रही है. 2017 में जब बीएमसी के चुनाव हुए थे तब भी बीजेपी का एक तरह से दबदबा ही रहा था, क्‍योंकि शिवसेना को उससे मात्र दो सीटें ज्‍यादा (कुल 84) आई थीं. वह चुनाव बीजेपी और शिवसेना ने अलग-अलग लड़ा था. यह विधानसभा चुनाव वह शिवसेना (शिंदे गुट) के साथ मिल कर लड़ रही है.

मुंबई में सीट शेयर के लिहाज से शिवसेना ने 1990 से अपना दबदबा बनाना शुरू किया. 2004 और 2009 के चुनावों को छोड़ दें तो तब से लगभग हर चुनाव में उसने सबसे ज्‍यादा सीटों पर कब्‍जा किया. 2019 में भी चौथाई सीटों पर उसके उम्‍मीदवार जीते थे. लेकिन, इस बार का समीकरण अलग है. शिवसेना के टूटने के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव है. 23 नवंबर को आने वाले परिणाम से यह भी साफ होगा कि मुंबई की जनता शिवसेना के दोनों गुटों के आगे किसी तीसरी पार्टी को तरजीह देती है नहीं?

बाल ठाकरे की शिवसेना का असली वारिस कौन?
ये तो हुई मुंबई की बात. अब थोड़ी बात महाराष्‍ट्र के संदर्भ में करते हैं. महाराष्‍ट्र की इस बार की लड़ाई मुख्‍य रूप से बस दो चेहरों के बीच है- उद्धव ठाकरे और एकनाथ शिंदे. 23 नवंबर को वोटों की गिनती के बाद पता चलेगा कि महाराष्‍ट्र की जनता बाला साहब ठाकरे की शिवसेना का असली वारिस उद्धव को मानती है या शिंदे को?

तोड़फोड़ की राजनीति पर जनता का रुख क्‍या?
दो चुनावों के बीच महाराष्‍ट्र की राजनीति की दोनों बड़ी पार्टियों में टूट हो गई है. शिवसेना को एकनाथ शिंदे ने तोड़ा और एनसीपी को अजीत पवार ने. इन दोनों ही बागियों के साथ होकर बीजेपी सत्‍ता में भागीदार बनी. इस वजह से कई लोग मानते हैं कि तोड़फोड़ में पर्दे के पीछे से भाजपा भी शामिल रही है. लेकिन जनता क्‍या मानती है, यह हमें 23 नवंबर को ही पता चलेगा. क्‍योंकि, लोकसभा चुनाव के जो नतीजे रहे, उनमें भाजपा के विरोधी गठबंधन को सीटें ज्‍यादा भले ही मिल गई हों, वोट लगभग बराबर ही मिले. लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के नेतृत्‍व वाले गठबंधन को 43.9 प्रतिशत वोट मिले थे और भाजपा वाले गठबंधन को 43.5 प्रतिशत. वोट में इनकी हिस्‍सेदारी में भले ही महज 0.4 फीसदी का अंतर था, लेकिन सीटों की हिस्‍सेदारी का अंतर 27 फीसदी हो गया था. एनडीए को जहां 35.4 प्रतिशत सीटें मिलीं, वहीं इंडि‍या को 62.5 फीसदी. ऐसे में यह कहना मुश्किल है कि जनता ने तोड़-फोड़ की राजनीति को नकार दिया. इसलिए इस मुद्दे पर असल में 23 नवंबर को ही तस्‍वीर साफ होगी.

Tags: Devendra Fadnavis, Maha Vikas Aghadi, Maharashtra Elections, Sharad pawar, Uddhav thackeray

FIRST PUBLISHED :

November 22, 2024, 16:25 IST

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