बिहार बदलाव का मंच बनता रहा है. देश की आजादी के लिए महात्मा गांधी ने बिहार के चंपारण की धरती को ही चुना, जिसकी गूंज कुछ ही दिनों में देश भर में होने लगी. व्यवस्था परिवर्तन के आह्वान के साथ जय प्रकाश नारायण ने बिहार से 1974 में शंखनाद किया. परिणाम सबको पता है. 1977 में आजादी के वक्त से ही देश की सत्ता में सिरमौर बने नेहरू परिवार की बेटी इंदिरा गांधी का लोकसभा चुनाव में सफाया हो गया था. ये तो पुरानी बातें हो गईं. पिछले ही साल नीतीश कुमार ने आरजेडी के साथ रहते बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकता का बीजारोपण बिहार में ही किया था, जो फलित तो नहीं हुआ, लेकिन पल्लवित-पुष्पित जरूर हुआ.
गांधी के सत्याग्रह की भूमि है बिहार
दक्षिण अफ्रीका से पढ़ाई पूरी करने के बाद मोहनदास करमचंद गांधी जब स्वदेश लौटे तो आजादी के आंदोलन के लिए उनकी इच्छा जोर मारने लगी. उन्हें एक ऐसे मुद्दे की तलाश थी, जो अलग-अलग रूपों में देश के किसान झेल रहे हों. बिहार के चंपारण में नील की खेती खेती के लिए अंग्रेजों का दबाव झेल रहे किसानों का मुद्दा उन्हें आंदोलन के शुभारंभ के लिए अधिक मुफीद लगा. शायद इसलिए भी कि अंग्रेजी हुकूमत से किसानों की यह समस्या सीधे जुड़ी हुई थी. अंग्रेज चंपारण के किसानों से जबरन उनकी 15 फीसद जमीन पर नील की खेती कराते थे. गांधी ने चंपारण से इसके खिलाफ आंदोलन शुरू किया. पलक झपकते देश भर के किसान इससे जुड़ गए. गांधी भारत को गांवों का देश इसीलिए शायद कहते थे कि किसानों की आबादी तब 70 प्रतिशत थी. बहरहाल, उनका बिहार के एक कोने से शुरू हुआ आंदोलन देश भर में फैल गया. आजादी के आंदोलन में चंपारण की सफलता ने गांधी को महात्मा बना दिया. मसलन बिहार से राज्य-राष्ट्र के हित में जिसने भी नई शुरुआत की, वह सफल हुआ. प्रशांत किशोर की पार्टी जन सुराज के संबंध में इसे अभी परखा जाना है.
जेपी के आंदोलन की भूमि है बिहार
गांधी की तरह ही देश की व्यवस्था बदलने का बीड़ा 1974 में जय प्रकाश नारायण ने भी उठाया. वे छात्र आंदोलन के नेतृत्व के लिए तब तैयार हुए, जब राजनीति के कोलाहल से दूर हो चुके थे. बिहार से उन्होंने आंदोलन को नेतृत्व देना शुरू किया, जो आग की लपटों की तरह देश भर में फेल गया. सत्ता पर एकाधिकार बरकरार रखने के लिए हर जुगत अपनाने वाली इंदिरा गांधी को जेपी के आंदोलन का खामियाजा भोगना पड़ा. आजादी के बाद से ही सत्ता नेहरू परिवार की चेरी बनी हुई थी. जेपी के आंदोलन ने उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया. प्रशांत किशोर ने भी व्यवस्था परिवर्तन के नारे के साथ ही राजनीति में दखल दी है. वे सफल होंगे या विफल, यह समय के गर्भ में है.
विपक्षी गोलबंदी की जगह है बिहार
बिहार की विशेषता जानने या बताने के लिए बहुत पीछे जाने की जरूरत नहीं है. बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने 2022 में बीजेपी छोड़ कर आरजेडी से हाथ मिला लिया था. दोनों दलों के नेताओं के बीच राजनीतिक रणनीति यह बनी कि नीतीश कुमार 2024 के लोकसभा चुनाव में गैर बीजेपी पीएम फेस बनें. बिहार को आरजेडी नेता लालू प्रसाद यादव के बेटे तेजस्वी यादव के लिए छोड़ दें. बिहार में आरजेडी के नेतृत्व में तब कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों का महागठबंधन था. माना गया कि बिहार के महागठबंधन का नेता होने के नाते नीतीश कुमार को पीएम फेस प्रोजेक्ट करने में कोई अड़चन नहीं आएगी. बाकी स्किल और एक्शन नीतीश कुमार का था. उन्होंने आम आदमी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी और उद्धव गुट की शिवसेना के नेताओं से व्यक्तिगत तौर पर मुलाकात कर आगे का काम और आसान कर लिया. अंततः पटना में इंडिया ब्लॉक की नींव पड़ गई. हालांकि नामकरण बाद में हुआ. नीतीश भले उस गोलबंदी से आगे चल कर अलग हो गए, लेकिन उनका बोया बीज तो पल्लवित-पुष्पित हुआ ही. बीजेपी बहुमत से दूर रह गई और इंडिया ब्लॉक संख्या में सत्ता के करीब पहुंच गया.
कास्ट पॉलिटिक्स की जननी बिहार
बिहार में सभी अच्छे कामों की ही शुरुआत हुई हो, ऐसा नहीं है. देश की राजनीति में हलचल मचाने वाली कास्ट पॉलिटिक्स की भी जननी बिहार ही है. पीएम रहते विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जब पिछड़े वर्ग के आरक्षण के लिए बीपी मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कीं तो इसका सबसे अधिक प्रभाव बिहार में ही पड़ा. सामाजिक तौर पर मार-काट तो मची ही, राजनीति की धारा भी बदल गई. जातिवादी धारा की राजनीति शुरू हुई. नई राजनीति के ध्वजवाहक बने लालू प्रसाद यादव. इसका लाभ भी उन्हें मिला और लगातार 15 साल बिहार की कमान उनके और उनकी पत्नी के हाथ रही. यह धारा अब भी बरकरार है, जिसे ध्वस्त कर नई धारा की राजनीति शुरू करने का श्रीगणेश किया है प्रशांत किशोर ने.
अब PK का प्रयोगस्थल बनेगा बिहार
प्रशांत किशोर की जाति विहीन राजनीति तब शुरू हुई है, जब देश भर में जाति के सहारे ही राजनीति को साधने के प्रयास हो रहे हैं. बिहार में कई जातीय संगठन हैं और उनके संबंध किसी न किसी राजनीतिक दल से हैं. आरजेडी का मुस्लिम-यादव समीकरण हो या नीतीश कुमार को लराभ दिलाने वाला लव-कुश समीकरण, इनके केंद्र में जाति ही है. इसके अलावा भी जातियों की स्वतंत्र इकाइयां भी हैं. इन सबके बीच प्रशांत किशोर जाति विहीन राजनीति की अवधारणा के साथ मैदान में उतरे हैं. इसे उनका नया प्रयोग माना जा रहा है. अपने प्रयास में वे कितने कामयाब होंगे, इस पर सबकी नजर बनी हुई है. इसकी परख अगले साल होने विधानसभा चुनाव में होगी. तभी पता चल पाएगा कि बिहार जाति के जकड़न से बाहर निकलना चाहता है या उसी में उलझ कर रहना चाहता है.
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FIRST PUBLISHED :
October 6, 2024, 07:34 IST