रतन टाटा नहीं रहे, बचपन से लेकर अंत तक हुआ मुसीबतों से सामना, हर बार निकले 'बाजीगर' बनकर

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Ratan Tata Death: भारत के महान रत्न रतन टाटा अब नहीं रहे. पद्म भूषण से सम्मानित रतन टाटा वो पहले शख्स थे, जिन्हें भारत रत्न देने के लिए सोशल मीडिया पर आम लोगों ने कैंपेन चला दिया. यह इतना ज्यादा चलने लगा कि सरकार तक सोचने लगी कि क्या किया जाए? कोई आम दौलतमंद शख्स होता तो खुद भी पैरवी करता या इसे बढ़ावा देता, मगर ये तो रतन टाटा थे. इन्होंने खुद लोगों से भावुक अपील कर दी कि उनके लिए इस तरह का कैंपेन न चलाया जाए.रतन टाटा ने कहा कि वह भारतीय होने पर खुद को भाग्यशाली मानते हैं और उन्हें देश की वृद्धि और समृद्धि में योगदान देने पर खुशी होगी. रतन टाटा देश के ऐसे इकलौते उद्योगपति थे, जो अपनी संपत्ति का सबसे ज्यादा हिस्सा दान करते थे. रतन टाटा अपनी दरियादिली के लिए पूरी दुनिया में मशहूर रहे. 28 दिसंबर 1937 को मुंबई में जन्मे रतन टाटा को अगर आप सोचते होंगे कि सारे सुख, मान-सम्मान विरासत में मिल गया तो आप गलतफहमी में हैं. रतन टाटा ने इसके लिए खूब संघर्ष किया.

बचपन में ही अलग हो गए थे माता-पिता

नवल टाटा और सूनी कमिसारीट के बेटे रतन टाटा जब 10 साल के थे, तब उनके माता-पिता अलग हो गए. जेएन पेटिट पारसी अनाथालय के माध्यम से उनकी दादी नवाजबाई टाटा ने उन्हें औपचारिक रूप से गोद ले लिया था. रतन टाटा का पालन-पोषण उनके सौतेले भाई नोएल टाटा (नवल टाटा और सिमोन टाटा के बेटे) के साथ हुआ.1962 में वे टाटा संस में शामिल हुए. वहां उन्हें फ़्लोर पर काम दिया गया. यह एक कठिन और थका देने वाला काम था, लेकिन उन्होंने पारिवारिक व्यवसाय के बारे में अनुभव और समझ हासिल की. 

हार से शुरू हुआ करियर

1971 में रतन टाटा को राष्ट्रीय रेडियो और इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी लिमिटेड (नेल्को) का डायरेक्टर-इन-चार्ज नियुक्त किया गया. उस समय इस कंपनी की माली हालत बहुत खराब थी. नेल्को की बाजार में हिस्सेदारी 2% थी और घाटा बिक्री का 40% था. तब टाटा संस के चेयरमैन जेआरजी टाटा को रतन ने सुझाव दिया कि इस कंपनी को उपभोक्ता इलेक्ट्रॉनिक्स की बजाय उच्च-प्रौद्योगिकी उत्पादों के विकास में निवेश करना चाहिए. जेआरडी ने रतन के सुझाव को मान लिया और 1972 से 1975 तक नेल्को ने बाजार अपनी में हिस्सेदारी 20% तक बढ़ा ली और अपना घाटा भी पूरा कर लिया.

नई तकनीक से आगे बढ़े

1975 में इमरजेंसी लगने और इसके बाद 1977 में यूनियन की हड़ताल हो गई. सात महीने की हड़ताल के बाद आखिरकार ये बंद हो गई. मतलब जीत कर भी रतन टाटा हार गए. फिर जेआरडी ने 1977 में रतन को Empress Mills सौंपा. यह टाटा नियंत्रित कपड़ा मिल थी, मगर यह भी घाटे में थी. रतन टाटा ने इसमें काफी मेहनत की और इसमें पूंजी लगाने का कंपनी से आग्रह किया, लेकिन उन्हें मदद नहीं दी गई.अंत में 1986 में इस मिल को बंद कर दिया गया.इस फैसले से रतन टाटा निराश हो गए. हिंदुस्तान टाइम्स से एक साक्षात्कार में उन्होंने दावा किया था कि अगर उस वक्त 50 लाख रुपये मिल गए होते तो कंपनी फायदे में आ जाती और उसे बंद नहीं करना पड़ता.यह उनकी लगातार दूसरी हार थी. हालांकि जेआरडी टाटा का उन पर विश्वास बना रहा. साल 1981 में ही उन्हें टाटा समूह की कई होल्डिंग कंपनियों को अध्यक्ष बना दिया गया. इस दौरान वो कंपनी में नये-नये तरह की टेक्नोलॉजी लाते रहे और रिसर्च पर जोर देते रहे. इससे कंपनी को फायदा होने लगा. 

1991 में बने चेयरमैन

1991 में जेआरडी ने रतन टाटा को ग्रुप का चेयरमैन का कार्यभार संभाला. इसके बाद उन्होंने पुराने डायरेक्टरों और मैनेजरों की जगह युवाओं को मौका दिया. इसके बाद टाटा संस और तेज रफ्तार से आगे बढ़ने लगा.रतन टाटा के ही मार्गदर्शन में टाटा कंसलटेंसी सर्विसेस सार्वजनिक निगम बनी और टाटा मोटर्स न्यूयॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध हुई. 1998 में टाटा मोटर्स ने उनके संकल्पित टाटा इंडिका को बाजार में उतारा.31 जनवरी 2007 को रतन टाटा की अध्यक्षता में टाटा संस ने कोरस समूह को सफलतापूर्वक अधिग्रहित किया, जो एक एंग्लो-डच एल्यूमीनियम और इस्पात निर्माता है. इस अधिग्रहण के साथ रतन टाटा भारतीय व्यापार जगत में एक प्रतिष्ठित व्यक्ति बन गये. इस विलय के फलस्वरुप दुनिया को पांचवां सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक संस्थान मिला.

कार बाजार में उतरे

1998 में रतन टाटा ने अपनी कंपनी की पहली कार लॉन्च की.  टाटा इंडिका को 1998 में लॉन्च किया गया था, जो डीजल इंजन वाली पहली भारतीय हैचबैक कार थी. इसके 25 साल पूरे होने पर रतन टाटा ने लिखा था, '25 साल पहले, टाटा इंडिका की लॉन्चिंग से भारत के स्वदेशी पैसेंजर कार उद्योग का जन्म हुआ था. यह सुखद यादें हैं और इसके लिए मेरे दिल में एक खास जगह है. आज भी यह कार मेरे लिए अच्छी यादों का खजाना है. मेरे दिल में इस कार के लिए खास जगह है.' 

हुआ घाटा फिर ये किया

घड़ी की सुई किस तरह घूमती है. रतन टाटा को कार बनाने से घाटा होने लगा.रतन टाटा ने अपनी कार कंपनी को बेचने का मन बनाया. वर्ष 1999 में वह फोर्ड को बेचने के  लिए अमेरिका गए. अमेरिका के डेट्रायट में फोर्ड के अधिकारियों के साथ रतन टाटा और अन्य शीर्ष अधिकारियों की बैठक को याद करते हुए टाटा समूह के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, 'उन्होंने हमसे कहा 'आपको कुछ पता नहीं है, आखिर अपने यात्री कार सेक्शन में कदम रखा ही क्यों? उन्होंने कहा कि टाटा की कार कंपनी को खरीदकर टाटा पर एहसान करेंगे.'यह बात रतन टाटा को चुभ गई. इसके बाद उन्होंने अपनी कार कंपनी पर और निवेश किया और नौ साल बाद ही टाटा समूह ने अमेरिकी कंपनी फोर्ड के प्रमुख ब्रांड जगुआर और लैंड रोवर को खरीद लिया.

सभी की हो कार

रतन टाटा का सपना था कि भारत का हर आदमी कार पर चले. इसके लिए एक लाख रुपये में कार लॉन्च की. 10 जनवरी 2008 को नैनो कार का उदघाटन कर के उन्होंने अपने सपने को पूरा किया.उन्होंने खुद इसके बारे में सोशल मीडिया पर लिखा था, "भारतीय परिवारों का बच्चों के साथ स्कूटर पर भीगते हुए या गर्मी में परेशान चेहरा अक्सर सड़कों पर दिख जाता था. इसी ने मुझे वास्तव में इस तरह की कार बनाने के लिए प्रेरित किया."


फिल्मों में भी आजमाया हाथ

रतन टाटा ने फिल्म इंडस्ट्री में भी किस्मत आजमाई थी, लेकिन उन्हें रिलायंस कंपनी की तरह सफलता नहीं मिली. आज से 20 साल पहले रतन टाटा ने अपने करियर की पहली फिल्म पर पैसा लगाया था, जो अपना बजट भी नहीं निकाल पाई थी. इस तरह यह फिल्म रतन टाटा की पहली और आखिरी फिल्म बनकर रह गई.  दरअसल, विक्रम भट्ट ने अमिताभ बच्चन, जॉन अब्राहम और बिपाशा बसु को लेकर रोमांटिक साइकोलॉजिकल थ्रिलर फिल्म 'ऐतबार' डायरेक्ट की थी, जो 23 जनवरी 2004 को रिलीज हुई थी. इस फिल्म को रतन टाटा के इन्फोमीडिया फिल्म प्रोडक्शंस के तहत बनाया गया था.फिल्म ने घरेलू बॉक्स ऑफिस पर 4.25 करोड़ रुपये और वर्ल्डवाइड बॉक्स ऑफिस पर महज 7.96 करोड़ रुपये का बिजनेस किया था. 'ऐतबार' बॉक्स ऑफिस पर अपना बजट भी नहीं निकाल पाई थी. फिल्म का बजट 9.50 करोड़ रुपये था. ऐसे में फिल्म पर लगाया रतन टाटा का पैसा और फिल्म इंडस्ट्री में आगे बढ़ने की उम्मीद दोनों ही डूब गए. 'ऐतबार' इतनी बड़ी फ्लॉप फिल्म साबित हुई कि रतन टाटा की दोबारा किसी फिल्म पर पैसा लगाने की कभी हिम्मत ही नहीं हुई.

एयर इंडिया वापस लिया

68 साल बाद एयर इंडिया की घर वापसी भी रतन टाटा ने करवा ली. 1953 तक टाटा समूह ही एयर इंडिया की मालिक थी. टाटा संस ने भारत सरकार से एयर इंडिया का मालिकाना हक 2022 में फिर से खरीद लिया. टाटा संस ने सरकार से एयर इंडिया 18 हजार करोड़ रुपये में खरीदा. एयर इंडिया के मालिकाना हक़ के लिए टाटा संस ने एयर इंडिया के लिए सबसे बड़ी बोली लगाई. इसका मालिकाना हक मिलने पर रतन टाटा बेहद खुश हुए थे.

देश की सुरक्षा में रहे तत्पर

यूं तो टाटा के ट्रक शुरू से ही भारतीय सेना में लिए जाते रहे हैं, लेकिन रतन टाटा के आने के बाद छोटे वाहनों सहित कई अन्य क्षेत्रों में टाटा और सेना मिलकर काम करने लगे.‘सी-295' मध्यम परिवहन विमानों की खरीद के लिए स्पेन की एयरबस डिफेंस एंड स्पेस (Airbus Deal) के साथ करीब 20,000 करोड़ रुपये के अनुबंध पर रतन टाटा ने समझौता किया. इसके साथ ही कई अन्य समझौते भी देशहित में रतन टाटा के कार्यकाल में टाटा संस ने किए. साथ ही रिसर्च और तकनीक के जरिए भी सेना की मदद की.

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