समस्तीपुर. किसान पपीते की खेती की ओर तेजी से आकर्षित हो रहे हैं, उन्हें लगता है कि इसके सिर्फ फायदे ही हैं. बिना जानकारी के पपीते की खेती करने पर आपको फायदे की जगह नुकसान हो सकता है. औषधीय और पोषण गुणों से अच्छी तरह वाकिफ रहने के कारण इसके मार्केटिंग में कोई समस्या नहीं है. डॉ राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा के वरीय वैज्ञानिक डॉ. संजय कुमार सिंह ने लोकल 18 को बताया की गेहूँ, चावल जैसे पारंपरिक फसलों पर ध्यान देने के बजाय, किसानों को फल, फूल और सब्जियों की खेती पर ध्यान देना चाहिए. इसमें पपीता एक अच्छा विकल्प है, इससे किसानों को हर साल 2-3 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर की शुद्ध बचत है.
विटामिन ए का है अच्छा स्रोत
डॉ. संजय सिंह ने कहा कि पपीता आम के बाद विटामिन ए का दूसरा सबसे अच्छा स्रोत है. यह कोलेस्ट्रॉल कम करने, मधुमेह को कंट्रोल करने और वजन कम करने में सहायक है, इसलिए डॉ. अक्सर इसकी सलाह देते हैं. इसके अलावा, यह रोशनी को बढ़ाता है और महिलाओं में मासिक धर्म के दर्द को कम करता है. पपीते में मौजूद एंजाइम ‘पपेन’ औषधीय गुणों से भरपूर है, जो इस फल की बढ़ती मांग में योगदान देता है. बाजार में बढ़ती मांग से अधिक लोग इसकी खेती पर ध्यान दे रहे हैं. इसका पौधा 1 साल के भीतर फल देना शुरू कर देता है, जिससे ये नकदी फसल बन जाता है. किसानों के पास कच्चे से लेकर पके हुए फलों को बाजार में बेचने के लिए पर्याप्त समय होता है. 1.8 x 1.8 मीटर की दूरी पर पौधे लगाकर पपीते की खेती करने पर प्रति हेक्टेयर लगभग 1 लाख रुपये का खर्च आता है, जबकि 1.25 x 1.25 मीटर की दूरी पर गहन खेती करने पर 1.5 लाख रुपये तक का खर्च आ सकता है.
जल जमाव का रखें ध्यान
इसे साल में तीन बार लगाया जा सकता है: जून-जुलाई, अक्टूबर-नवंबर और मार्च-अप्रैल. हालांकि, बिहार में जून-जुलाई के दौरान सक्रिय मानसून के कारण पपीते की खेती करना उचित नहीं है. यदि खेतों में 24 घंटे से अधिक समय तक पानी भरा रहता है तो पपीते के पौधों को बचाना न केवल मुश्किल बल्कि लगभग असंभव हो जाता है. पपीते को रोपने से लेकर फल लगने तक पर्याप्त मात्रा में पानी की जरूरत होती है; कम पानी पौधा और फल दोनों के विकास में बाधा डालता है, जबकि बहुत अधिक पानी इसे खत्म भी कर सकता है. इसलिए जहां पानी जमा न हो केवल उन खेतों में इसे लगाना चाहिए. गर्मियों के दौरान साप्ताहिक और सर्दियों में हर दो सप्ताह में सिंचाई करनी चाहिए. कम बीमारी के कारण अक्टूबर-नवंबर में पपीते की खेती लोकप्रिय हो रही है. इसकी सफल खेती के लिए, केवल अधिकृत स्रोतों से सही बीज लेना जरूरी है. बीजों को एक सेंटीमीटर की गहराई पर अच्छी तरह से जोती गई मिट्टी में बोना चाहिए और नुकसान से बचाने के लिए कीटनाशक और कवकनाशक का उपयोग करना चाहिए.
रोग से बचाने के लिए विशेष उपाय
नवजात पौधों को सिल्वर एवं काले रंग के प्लास्टिक फिल्म से मल्चिंग करने से पंख वाले एफिड पलायन कर जाते हैं जिससे खेत में लगा पपीता इस रोग से आक्रांत होने से बच जाता है. उपरोक्त सभी उपाय अस्थाई हैं इससे इस रोग की उग्रता को केवल कम किया जा सकता है समाप्त नहीं किया जा सकता है। इन उपायों को करने से रोग, देर से दिखाई देता है. फसल जितनी देर से इस रोग से आक्रान्त होगी उपज उतनी ही अच्छी प्राप्त होगी. इस रोग का स्थाई उपाय ट्राँसजेनिक पौधों का विकास है। इस दिशा में देश में कार्य आरम्भ हो चुका है. विदेशों में विकसित ट्राँसजेनिक पौधों को यहाँ पर ला कर उगाया गया, तब ये पौधे रोगरोधिता प्रदर्शित नहीं कर सके.
किस्में और उत्पादन तकनीक
पपीता की देशी और विदेशी अनेक किस्में उपलब्ध हैं. देशी किस्मों में राची, बारवानी और मधु बिंदु लोकप्रिय है. विदेशी किस्मों में सोलों, सनराइज, सिन्टा और रेड लेडी प्रमुख है. रेड लेडी के एक पौधे से 70 से 80 किलोग्राम तक पपीता पैदा होता है. पूसा संस्थान द्वारा विकसित की गई ‘पूसा नन्हा’ पपीते की सबसे बौनी प्रजाति है. यह केवल 30 सेंटीमीटर की ऊंचाई से ही फल देना शुरू कर देता है, जबकि को-7 गायनोडायोसिस प्रजाति का पौधा जमीन से 52.2 सेंटीमीटर की ऊंचाई से फल देता है. इसके एक पेड़ से 115 से ज्यादा फल प्रतिवर्ष मिलते हैं.इस प्रकार यह 340 टन प्रति हेक्टेयर तक की उपज देता है, 800 ग्राम से लेकर 2 किलोग्राम तक अलग-अलग साइज के फल होते हैं.
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FIRST PUBLISHED :
October 26, 2024, 23:55 IST