Justice Rana Bhagwandas: पाकिस्तान में हिंदू एक अल्पसंख्यक समुदाय है. इस मुस्लिम देश में हिंदू समुदाय के काफी लोग बड़े पदों पर रहे हैं. लेकिन अगर बात पाकिस्तान की न्यायिक सेवा की हो तो केवल एक हिंदू शख्स ही सर्वोच्च पद तक पहुंचा था. राणा भगवान दास को 2007 में पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बनाया गया था. वह पाकिस्तान में चीफ जस्टिस की कुर्सी पर बैठने वाले पहले और इकलौते हिंदू जज थे. उनसे पहले एक ईसाई जस्टिस एआर कोर्नेलियस 1960 से 1968 तक पाकिस्तान के चीफ जस्टिस रहे थे. राणा भगवान दास उन लोगों में से थे, जिन्होंने अपने करियर के दौरान एक ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रतिष्ठा अर्जित की जो कभी भी सिद्धांतों से समझौता करने को तैयार नहीं थे. उनकी काबिलियत को देश के भीतर और बाहर दोनों जगह मान्यता मिली थी.
ये बात अलग है कि जस्टिस राणा भगवान दास को केवल चार महीनों के लिए ये पद सौंपा गया था. उन्हें चीफ जस्टिस इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी की जगह ये पद सौंपा गया था. उस समय चीफ जस्टिस चौधरी चीन की यात्रा पर गए हुए थे. क्योंकि चीफ जस्टिस चौधरी के बाद जस्टिस राणा भगवान दास ही सबसे सीनियर थे, इसलिए उनकी गैरहाजिरी में वह इस कुर्सी पर बैठने के हकदार थे. वह 24 मार्च 2007 से 20 जुलाई 2007 तक इस पद पर रहे. इससे पहले भी जब जस्टिस इफ्तिखार चौधरी 2005 और 2006 के दौरान विदेश यात्रा पर गए थे तो जस्टिस भगवान दास ने कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश का कार्यभार संभाला था. जस्टिस भगवान दास पाकिस्तान में संवैधानिक मामलों के सबसे बड़े विशेषज्ञ थे.
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ठुकरा दिया था मुशरर्फ का आदेश
जस्टिस भगवानदास उन न्यायाधीशों में से थे, जिन्होंने 2007 में जनरल मुशर्रफ के संवैधानिक आदेश के तहत शपथ लेने से इनकार कर दिया था. उन्होंने अपने एक असहमति नोट में लिखा था कि तानाशाह को सेना प्रमुख के रूप में पद छोड़ना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने के बाद, उन्होंने सही ढंग से और पेशेवर तरीके से कार्य करने के दृढ़ संकल्प के साथ संघीय लोक सेवा आयोग का नेतृत्व किया.
1967 में जुड़े थे न्यायिक सेवा से
जस्टिस राणा भगवान दास ने एलएलबी और एलएलएम की डिग्री लेने के अलावा इस्लामिक स्टडीज में भी मास्टर्स की डिग्री हासिल की थी. उन्होंने 1965 में वकालत करना शुरू किया. फिर वह 1967 में पाकिस्तान की न्यायिक सेवा से जुड़ गए थे. 1994 में उन्हें तरक्की देकर सिंध हाईकोर्ट का जज बनाया गया. साल 2000 में जस्टिस भगवान दास सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस नियुक्त किए गए. पाकिस्तान में चीफ जस्टिस के पद तक इससे पहले केवल एक गैर-मुस्लिम जज ही पहुंच सके थे. लेकिन वह इस पद पर पहुंचने वाले पहले हिंदू जज थे. जस्टिस भगवान दास का जन्म 20 दिसंबर 1942 को सिंध प्रांत की राजधानी कराची में एक सिंधी परिवार में हुआ था. 23 फरवरी, 2015 को उनका 72 साल की उम्र में कराची में देहांत हो गया था.
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जब भारत में प्रवेश देने से किया इनकार
यह वाकया जस्टिस भगवानदास के चीफ जस्टिस बनने से पहले का है. जस्टिस भगवानदास भारत आने के लिए अपने परिवार सहित लाहौर- अमृतसर बस से वाघा बार्डर पहुंचे. लेकिन भारतीय इमिग्रेशन अधिकारियों ने उन्हें देश में प्रवेश करने की इजाजत नहीं दी. इमिग्रेशन अधिकारी उनके यात्रा संबंधी दस्तावेजों से संतुष्ट नहीं थे. नतीजतन उन्हें वापस लौटना पड़ा था. बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार इमिग्रेशन अधिकारियों ने राणा भगवानदास से कहा था कि आपके पास लखनऊ का वीजा है, इसलिए वह अमृतसर होकर नहीं जा सकते. उस समय पंजाब प्रांत अशांत क्षेत्र घोषित था. जस्टिस भगवानदास ने अधिकारियों को समझाने की कोशिश भी की. उन्होंने कहा कि उनके और उनके परिवार के पास लखनऊ जाने का वैध वीजा है. वह अमृतसर से ट्रेन पकड़ कर लखनऊ चले जाएंगे. लेकिन अधिकारियों ने उनकी एक न सुनी. हालांकि अधिकारियों ने उन्हें अकेले जाने की इजाजत दे दी थी. लेकिन जस्टिस भगवानदास ने यह पेशकश ठुकरा दी.
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गलतफहमी की वजह से हुआ ऐसा
हालांकि भारत में जस्टिस भगवानदास के स्वागत की जोरदार तैयारियां की गई थीं. अमृतसर के कई न्यायिक अधिकारी उनका स्वागत करने के लिए वाघा बार्डर तक आए थे. स्थानीय प्रशासन ने उनके ठहरने का इंतजाम सर्किट हाउस में किया था. स्वागत करने आए अधिकारियों ने केंद्रीय गृह मंत्रालय और कई सीनियर अधिकारियों से इस मामले में बात करने की कोशिश की. लेकिन उनकी कोशिशों का कोई नतीजा नहीं निकला. जस्टिस भगवानदास और उनका परिवार निराश होकर भारतीय सीमा में दाखिल हुए बिना ही वापस लौट गए. जाने से पहले जस्टिस भगवान दास ने शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू के मुकदमों से संबंधित कुछ किताबें और दस्तावेज पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के नाम उनसे मिलने आए न्यायिक अधिकारियों को सौंपे थे. बाद में भारतीय इमिग्रेशन अधिकारियों ने कहा कि उन्हें नहीं मालूम था कि यह जस्टिस भगवानदास का परिवार था.
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भगवानदास का शीर्ष पद तक पहुंचना एक जीत
अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य के रूप में जस्टिस भगवानदास का सर्वोच्च न्यायपालिका के शीर्ष पर पहुंचना अपने आप में एक जीत थी. इस प्रकार उन्होंने एक आदर्श के रूप में कार्य किया, और एक सख्त संविधानवादी के रूप में, सभी नागरिकों के लिए उनकी मान्यताओं की परवाह किए बिना समान अधिकारों के लिए लगातार संघर्ष किया. विडंबना यह है कि सिंध हाईकोर्ट के न्यायाधीश के रूप में पांच साल तक रहने के बाद 1999 में सर्वोच्च न्यायालय में उनकी खुद की पदोन्नति को एक याचिका में असफल रूप से चुनौती दी गई थी, जिसने उनके धर्म का सवाल उठाया था.
न्यायमूर्ति भगवानदास का निधन ऐसे समय में हुआ जब उनकी क्षमता और प्रतिष्ठा वाले और लोगों की जरूरत थी. वह अपने पीछे दृढ़ संकल्प, साहस और दृढ़ विश्वास के माध्यम से क्या हासिल किया जा सकता है, इसका एक शानदार उदाहरण छोड़ गए हैं. इसे देश के सभी धर्मों के व्यक्तियों के लिए प्रेरणा स्रोत के रूप में कार्य करना चाहिए. हमें निश्चित रूप से ऐसी प्रेरणा और ऐसे उदाहरणों की आवश्यकता है.
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FIRST PUBLISHED :
September 28, 2024, 16:53 IST