रतन टाटा ने 20 दिनों में वो काम किए, जिसमें सरकार को सालों लग गए

2 hours ago 1

26 नवंबर 2008 की मनहूस शाम...600 कमरे और 44 सुइट वाले भारत के पहले लग्जरी होटल ताज महल पैलेस पर पाकिस्तान से आए 10 आतंकियों ने हमला कर दिया. ताज और उसके आसपास गोलियों की तड़तड़ाहट गूंज रही थी. इसी माहौल में एक 70 साल का बूढ़ा शख्स ताज होटल के गेट पर कार से उतरता है. सुरक्षाकर्मी उसे अंदर जाने से रोकते हैं, क्योंकि वे जानते हैं ये शख्स ही इस होटल का मालिक है और सुरक्षा के लिहाज से उस शख्स का अंदर जाना ठीक नहीं था. तब वो शख्स गरजते हुए कहता है- एक भी आतंकी जिंदा नहीं बचना चाहिए और जरूरत पड़े तो पूरी प्रॉपर्टी को ही बम से उड़ा दो. जिसने भी ये सुना सभी सन्न रह गए...क्या आप जानते हैं हजारों करोड़ की अपनी ही प्रॉपर्टी को उड़ा देने की बात करने वाला ये शख्स कौन था- वे थे रतन टाटा. देश के सबसे बड़े औद्योगिक समूह, जिसकी कीमत पिछले साल 28 लाख करोड़ रुपये आंकी गई. वे उसके चेयरमैन थे. लेकिन आज वो अब हमारे बीच नहीं हैं. ऐसे में अब उन्हें लेकर कई मिथक सुने- सुनाए जा रहे हैं...क्या है उसकी हकीकत, कैसी थी रतन टाटा की शख्सियत, क्यों उन्हें अपनी ही कंपनी में नौकरी के लिए रिज्यूमे भेजना पड़ा था? क्या वाकई उन्होंने फोर्ड को सबक सिखाने के लिए ही लैंड रोवर और जगुआर को खरीदा था? क्या उन्होंने अपने से पांच गुणा बड़ी कंपनी कोरस को एक झटके में खरीद कर गलती की थी? आज हम इन्हीं सवालों का जवाब ढूंढेंगे.

Latest and Breaking News connected  NDTV

शुरुआत उसी मुंबई हमले से करते हैं जिसकी बात हमने शुरु में की थी. तमाम अवरोधों के बावजूद रतन टाटा ताज होटल के अंदर गए और वहीं पर तीन दिन और 3 रात तक डटे रहे. इस दौरान उन्होंने सुनिश्चित किया कि सभी सुरक्षित रहे. इस हमले के बाद जो उन्होंने किया उसके बारे में कहा जाता है कि ये सिर्फ रतन टाटा ही कर सकते थे. हमले के 20 दिन के भीतर ही उन्होंने एक ट्रस्ट बनाया. इस ट्रस्ट ने इसी 20 दिनों में हमले में मारे गए.  हर कर्मचारी के परिवार को 36 लाख से लेकर 85 लाख रुपये तक का मुआवजा दिया. इतना ही नहीं रतन टाटा ने आतंकी हमले के पीड़ितों के 46 बच्चों की पढ़ाई-लिखाई की पूरी जिम्मेदारी भी उठाई. रतन टाटा ने न सिर्फ ताज होटल के कर्मचारियों की बल्कि आतंकी हमले के पीड़ित रेलवे कर्मचारियों, पुलिस स्टाफ, वहां से गुजर रहे राहगीरों जैसे दूसरे लोगों को भी मुआवजा दिया. इनमें से सभी को 6 महीने तक 10 हजार रुपये महीने की मदद दी गई. आपको आश्चर्य होगा कि इसी तरह के काम करने में हमारी सरकारों को सालों लग गए. अब भी कई पीड़ित मुआवजे की राह देख रहे हैं. लेकिन रतन टाटा ने ये काम महज तीन हफ्ते में पूरा कर दिया था.

जब टाटा कंपनी में रतन टाटा को मिली थी नौकरी...
अब इस महामानव की जिंदगी में थोड़ा और अंदर से झांकते हैं. उनका जन्म 28 सितंबर 1937 को गुजरात के सूरत में नवल टाटा के घर हुआ था. उनके पिता ने दो शादियां की थी. उनकी दूसरी मां के बेटे का नाम नोएल टाटा है. अमेरिका में आर्किटेक्चर और स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग में डिग्री लेने के बाद उन्होंने अमेरिका में ही नौकरी करने का मन बना लिया. लेकिन तभी उनकी दादी लेडी नवजबाई ने उन्हें वापस भारत आने को कहा. मजबूरी में वे भारत लौटे. लेकिन यहां आकर उन्होंने IBM कंपनी में नौकरी ज्वाइन कर ली. उनकी पहली नौकरी के बारे में उनके परिवार को पता नहीं था. कुछ समय बाद जब जे.आरडी टाटा को उनकी नौकरी के बारे में पता चला तो वे काफी नाराज हुए. उन्होंने तुरंत ही रतन टाटा को फोन करके अपना बायो डाटा शेयर करने को कहा. लेकिन तब रतन टाटा के पास अपना बायोडाटा नहीं था. लिहाजा उन्होंने खुद ही IBM के ही टाइपराइटर पर अपना रिज्यूमे टाइप किया और JRD को भेज दिया. इसके बाद 1962 में उन्हें टाटा कंपनी में नौकरी मिली. जहां उन्होंने 1965 तक एक आम कर्मचारी के तौर पर काम किया.

Latest and Breaking News connected  NDTV

एक और मशहूर किस्सा है कि रतन टाटा ने फोर्ड से अपनी बेइज्जती का बदला लेने के लिए उसके मशहूर ब्रांड लैंड रोवर और  जगुआर का अधिग्रहण किया था. लेकिन आपमें से कई को जानकर आश्चर्य होगा कि ये सिर्फ आधा सच है. इंटरनेट में ऐसा प्रचारित किया जाता है कि साल 1999 में रतन टाटा जब फोर्ड के मालिक से मिलने अमेरिका गए थे तब उन्होंने कहा था- आपको कार का बिजनेस करना नहीं आता. इसके बाद वो 9 सालों तक इस बेइज्जती को सालते रहे और फिर जब फोर्ड के दिवालिया होने की नौबत आई तो उन्होंने उसके सबसे महंगे ब्रांड लैंडरोवर और जगुआर का अधिग्रहण कर लिया. लेकिन पूरा सच ये नहीं है. असली खेल कुछ और था. दरअसल साल 1999 में पर्सनल व्हीकल सेक्शन में टाटा को काफी घाटा हो रहा था. 

तब कुछ लोगों ने रतन टाटा को सलाह दी थी कि वे पैसेंजर कार सेगमेंट को बेच दें. उस समय फोर्ड ने इसमें दिलचस्पी दिखाई थी. इसी संबंध में बातचीत के लिए रतन टाटा और उनके अधिकारी प्रवीण अमेरिका के डेट्रायट गए थे. इसी बातचीत में फोर्ड के चेयरमैन ने उनसे कहा कि आपको कार मैन्यूफेक्चरिंग के बिजनेस में नहीं आना चाहिए था. अंत में बात पैसों को लेकर अटक गई. टाटा इसके बाद लौट आए. इसके बाद टाटा ने धीरे-धीरे इस मार्केट में पकड़ बनाई. इसी दौरान साल 2007 में फोर्ड मोटर्स को अपने 100 सालों के इतिहास में सबसे बड़ा घाटा हुआ. नौबत दिवालिया होने की आ गई. इसी खबर में रतन टाटा को मौका दिखा. उन्होंने अमेरिका में अपने प्रतिनिधि भेजकर सर्वे कराया. एक साल तक चले इस सर्वे में ये परिणाम निकला कि लैंडरोवर और जगुआर ब्रांड का मार्केट अब भी बरकरार है. लेकिन अमेरिका में मंदी की वजह से लोग इसकी खरीदारी नहीं कर रहे हैं. इसी सूचना के बाद रतन टाटा ने इन दोनों ब्रांड को खरीदने का फैसला किया. उन्होंने अनुमान लगाया कि मंदी खत्म होने के बाद इन कारों की बिक्री बढ़ेगी. बाद में ये अनुमान सही निकला. जब ये डील हुई तो फोर्ड के चेयरमैन ने कहा- दरअसल आप इन्हें खरीद कर हम पर एहसान कर रहे हैं. इसके बाद टाटा तब ऐसी कंपनी बन गई थी जो 1 लाख और 1 करोड़ की कार एक साथ बेच रही थी. ये पूरा प्रकरण रतन टाटा की दूरदर्शिता को दिखाता है. 

रतन टाटा ने स्टील बनाने वाली कंपनी कोरस का किया था अधिग्रहण
इसी दौरान रतन टाटा ने एक और बड़ा फैसला लिया- उन्होंने खुद से करीब 5 गुणा बनी स्टील बनाने वाली कंपनी कोरस का अधिग्रहण किया. जब उन्होंने इसका फैसला किया तो उनकी खूब आलोचना हुई. साल 2007 में जब ये डील हुई तो टाटा ने इसके लिए 12 बिलियन डॉलर की रकम चुकाई थी. ये बड़ी रकम थी.उस समय भारत की ओर से विदेश में ये सबसे बड़ा अधिग्रहण था.  इसके लिए टाटा को बैंकों से कर्ज लेना पड़ा था लेकिन बाद रतन टाटा का ही फैसला सही साबित हुआ. अब टाटा स्टील दुनिया की दस बड़ी स्टील निर्माता कंपनियों में शामिल हो चुकी है. 


 रतन टाटा के निधन पर समाज का हर तबका गमगीन
अब एक और बड़े मिथक को समझ लेते हैं. रतन टाटा देश के सबसे बड़े औद्योगिक समूह के मालिक थे लेकिन फिर भी वे फोर्ब्स या हारून की अमीरी की लिस्ट में कभी नहीं शामिल होते थे क्यों? आज आपको तकरीबन हर जगह ये खबर मिल जाएगी कि रतन टाटा की संपत्ति महज 4 हजार करोड़ के आसपास थी. ये भी पूरा सच नहीं है. दरअसल, टाटा समूह का कुल बाजार मूल्य 28 लाख करोड़ रुपये से भी अधिक है. जो देश के दूसरे औद्योगिक ग्रुपों से कहीं अधिक है. लेकिन टाटा संस के चेयरमैन रतन टाटा अपनी आय का 60 से 65 फीसदी हिस्सा दान में दे देते थे. ये टाटा ग्रुप की फिलॉसिपी का ही हिस्सा है. जमशेदजी नसरवानजी टाटा जो इस समूह के संस्थापक थे. उन्होंने कहा था- हम जितना समाज से कमाते हैं उतना हमें उन्हें वापस भी करना चाहिए. इसी सोच के तहत टाटा फैमली कभी भी अमीरों की लिस्ट में शामिल नहीं होती है जबकि वो ऐसी सारी चीजों का उत्पादन करती है जो हमारी आपकी जिंदगी को हर कदम पर प्रभावित करती है. रतन टाटा के समय में ही टाटा समूह का कारोबार दुनिया के छह महाद्वीपों के 100 से ज्यादा देशों में फैला था. ऐसे महामानव को श्रद्धांजलि. आप सिर्फ टाटा ही नहीं बल्कि देश के भी रतन थे..आप शायद देश के इकलौते बिजनेमैन होंगे जिनके निधन पर समाज का हर तबका गमगीन है.

*** Disclaimer: This Article is auto-aggregated by a Rss Api Program and has not been created or edited by Nandigram Times

(Note: This is an unedited and auto-generated story from Syndicated News Rss Api. News.nandigramtimes.com Staff may not have modified or edited the content body.

Please visit the Source Website that deserves the credit and responsibility for creating this content.)

Watch Live | Source Article