ढाका. बांग्लादेश जमात-ए-इस्लामी (जेईआई) के प्रमुख डॉ. शफीकुर रहमान ने हाल ही में कहा कि अगर 1971 के मुक्ति संग्राम के दौरान उनकी पार्टी द्वारा की गई कार्रवाइयां गलत साबित होती हैं तो उनकी पार्टी माफी मांगेगी. बांग्लादेश की सबसे बड़ी इस्लामी राजनीतिक पार्टी जेईआई 1971 के संघर्ष में अपनी भागीदारी और अपने चरमपंथी रुख के कारण बेहद विवादास्पद रही है. बांग्लादेश में पूर्व पीएम शेख हसीना के बाद के दौर में जमात-ए-इस्लामी राजनीति में अपने संभावित कदम के साथ अपने भविष्य के पुनर्निर्माण की ओर देख रही है. इसलिए पार्टी की ऐतिहासिक भूमिका का फिर से मूल्यांकन करना जरूरी है.
जमात-ए-इस्लामी की स्थापना 1941 में अब्दुल आला मौदुदी ने हैदराबाद में की थी. शुरुआत में, यह इस्लामी सिद्धांतों से शासित एक एकीकृत भारत की स्थापना के नजरिये के साथ एक सामाजिक संगठन के रूप में उभरा, जिसने विभाजन के खिलाफ खुद को खड़ा किया. समय के साथ, जमात एक राजनीतिक पार्टी के रूप में विकसित हुई. जिसने 1947 के विभाजन के बाद पश्चिम और पूर्वी पाकिस्तान दोनों पर ध्यान केंद्रित किया. 1971 के मुक्ति युद्ध के दौरान, जमात ने बढ़ते बंगाली राष्ट्रवादी आंदोलन का विरोध किया. बांग्लादेश की आजादी का समर्थन करने के बजाय, इसने एकीकृत मुस्लिम राज्य की वकालत करते हुए पश्चिमी पाकिस्तान का पक्ष लिया. पूर्वी पाकिस्तान के खिलाफ उनके सैन्य अभियान में जमात पाकिस्तानी सेना के साथ एक प्रमुख सहयोगी बन गई.
जमात ने पाकिस्तानी सेना का साथ दिया
इसके नेताओं और सदस्यों ने बंगाली मुक्ति संघर्ष को दबाने के पाकिस्तानी सेना की कोशिशों का समर्थन करने में बड़ी भूमिका निभाई. इस तरह युद्ध और उसके साथ होने वाली हिंसा में उनकी भागीदारी और गहरी हो गई. पाकिस्तानी सेना ने जंग के दौरान पूर्वी पाकिस्तान केंद्रीय शांति समिति (शांति समिति) की स्थापना की. जिसके संस्थापक सदस्य जमात-ए-इस्लामी के अमीर गुलाम आजम थे. इस समिति ने बंगाली मुक्ति सेनानियों के खिलाफ हमलों की योजना बनाने में मदद की और लगभग 10,789 स्वयंसेवकों से बने अर्धसैनिक बल रजाकार के निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभाई. रजाकार ने अन्य सहयोगियों के साथ मिलकर बंगाली सेनानियों, बुद्धिजीवियों, महिलाओं और हिंदू समुदायों को निशाना बनाकर युद्ध अपराध और मानवाधिकार उल्लंघन सहित अत्याचार किए.
30 लाख लोगों का नरसंहार हुआ
इन ताकतों की इस क्रूरता के कारण 30 लाख लोगों का नरसंहार हुआ, जो बांग्लादेश के इतिहास का एक काला अध्याय है. रजाकारों के साथ अपनी भागीदारी के जरिये, जमात-ए-इस्लामी बंगाली नागरिकों के खिलाफ हिंसा भड़काने में शामिल थी. उसके सबसे भयानक कामों में 200 से अधिक बंगाली बुद्धिजीवियों की हत्या, कम से कम 200,000 से 400,000 महिलाओं का सामूहिक बलात्कार और हिंदुओं का हिंसक उत्पीड़न शामिल था. रजाकार-अल-शम्स और अल-बद्र के सहायक गुटों का गठन जमात की छात्र शाखा इस्लामिक छात्र संघ द्वारा किया गया था, जिसने नरसंहार हिंसा में पार्टी की भूमिका को और गहरा कर दिया. इन युद्ध अपराधों की विरासत आज भी बांग्लादेश को परेशान करती है.
1972 में जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगा
बांग्लादेश की आजादी के बाद, शेख मुजीबुर रहमान के नेतृत्व में 1972 में जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. हालांकि, 1975 में मुजीबुर रहमान की हत्या के बाद, जमात-ए-इस्लामी को नए अवसर मिले. जियाउर रहमान के सैन्य शासन ने 1977 में सांप्रदायिक संगठनों पर प्रतिबंध हटा दिया, जिससे जमात का राजनीतिक पुनरुत्थान हुआ. जियाउर रहमान और जनरल इरशाद के नेतृत्व में जमात ने फिर से राजनीतिक क्षेत्र में प्रवेश किया.
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FIRST PUBLISHED :
December 3, 2024, 16:17 IST