वो भारतीय संन्यासी, जिन्होंने अमेरिका में बसा दिया था नया शहर, रखते थे 96 रोल्स रॉयल कार. मध्य प्रदेश के रायसेन शहर के कुच्वाडा गांव में बाबूलाल के घर पहली संतान ने जन्म लिया. जिसके चेहरे पर एक तेज चमक, सहज आकर्षण और संवेदनशीलता भरी हुई थी. एक ज्योतिष ने कहा कि लड़के की आयु सिर्फ 21 वर्ष ही है उसके बाद इसकी मृत्यु हो जाएगी और अगर ये बच गया तो जरूर कोई महात्मा बन जाएगा. माता-पिता परेशान हो उठे. पिता बाबूलाल और माता सरस्वती जैन ने इसी कारण से चंद्रमोहन जैन को बचपन में ही उनकी नानी के घर भेज दिया था जहां वो 7 साल तक रहे. बाद में बाबूलाल ने जैसे सभी बच्चों को पाला था उसी तरह उनका भी लालन-पालन वैसे ही कर रहे थे. चंद्रमोहन अपने घर के सबसे बड़े बेटे थे. नाना के निधन के बाद चंद्रमोहन वापस अपने माता पिता के पास आ गए और पढ़ाई करने लगे. वे बचपन से ही बगावती तेवर वाले थे. उन्हें किसी भी विषय में अगर रुचि है तो वे उस विषय को बहुत ही सरसरी तौर पर पढ़ा करते थे. इन्हें ही को आज हम ओशो के नाम से जानते है.
OSHO Said – “अपने को गंवा के इस जगत में कमाने जैसा कुछ भी नहीं है. अपने को बचा के जितना खेल खेलना है खेल सकते हो. जब परमात्मा ही लीला कर रहा हैं तो तुम क्यों परेशान हो”
बचपन में ही ओशो ने अपनी पहचान एक कुशल और तर्कवादी के रूप में बना ली थी. 1951 में बी.ए की पढ़ाई पूरी करने के बाद ओशो ने हितकारिणी कॉलेज में एडमिशन लिया और विषय चुना दर्शनशास्त्र. बाताया जाता है कि लगातार ओशो के प्रश्नों की बौछार से कॉलेज के सभी प्रोफेसर परेशान थे. उनके पास उन सवालों के जवाब न होते थे जो ओशो उनसे पूछा करते थे. सवालों से परेशान होकर सभी प्रोफेसरों ने एक फैसला लिया और विद्यालय के प्रधानाचार्य से मुलाकात की. जिसमे ओशो को कॉलेज से निकलवाने की बात कही गई. जब प्रधानाचार्य ने ओशो से यह बात कही तो उन्होंने यह स्वीकार कर लिया और किसी अन्य कॉलेज में दाखिला लिया. लेकिन अपनी आदतों के मजबूर ओशो किसी अन्य कॉलेज में भी न टिक पाए. अंत में जाकर सवाई सिंघई मुन्नी लाल जैन महाविद्यालय में ओशो ने एडमिशन लिया और अपनी पढ़ाई पूरी की.
कभी कॉलेज के प्रवक्ता के रूप में लोगों की शिक्षा दी
अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद ओशो जबलपुर विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में कार्यरत हो गए. जहां पर वे खुलकर राजनीति, धर्म, महापुरुषों की किताबों, कामवासना जैसे अन्य कई गंभीर विषयों पर अपनी बात को रखते थे. उनको लोग तेज-तर्रार अध्यापक के रूप में देखने लगे. उनकी बातें लोगों को अंदर से झकझोर देती थी. विश्वविद्यालय में खुलकर सेक्स जैसे विषयों पर बोलने पर उनकी आलोचना होने लगी. जिसके बाद उन्होंने उस विश्वविद्यालय से त्यागपत्र दे दिया और अपने आप का अध्ययन करने के लिए आध्यात्म की तरफ रुख किया. उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण शुरू किया साथ ही जगह-जगह राजनीति, धर्म और सेक्स पर विवादास्पद बाते करने लगे. कई लोगों को उनकी बातें सही लगती थी और कई लोग उनकी बातों की जमकर आलोचना करते रहते थे.
ओशो ने भारत भ्रमण के बाद मुंबई में बनाया अपना पहला मुख्यालय
भारत के कई शहरों का भ्रमण करने के बाद ओशो ने एक विदेशी महिला के साथ मिलकर मुंबई (तब बॉम्बे) में अपना मुख्यालय स्थापित किया और लोगों को अपनी दिए गए वक्त्वयों से आकर्षित करने लगे थे. वे ऐसी बात करते जो किसी विषय को बारीकी से स्पष्ट करने के लिए कही गई हो. ओशो को सुनने वाले ओशो के अनुयायी उन्हें भगवान के रूप में देखने लगे और आचार्य रजनीश के नाम से भी संबोधित करने लगे. हालांकि. ओशो ने खुद को भगवान कभी नहीं कहा था वे अपने आपको लोगों का मार्गदर्शक बताते थे. उनके कई अनुयायी उन्हें एक विचारक, संत-सतगुरु, रहस्यदर्शी, दार्शनिक, शक्ति, और सेक्स गुरु के नाम से भी जानते हैं.
OSHO Said – “उस मनुष्य से ज्यादा बदकिस्मत कोई नहीं है जिसके जीवन से परमात्मा का भाव खो गया हैं.”
ओशो की पहली किताब बनी चर्चा का विषय
भारत में ओशो की बातों को लोगों तक पहुंचाने के लिए उनके अनुयायियों ने ओशो द्वारा कही गई बातों को को किताब का रूप दे दिया. उनकी पहली किताब ‘संभोग से समाधि’ सबसे बड़ी चर्चा का विषय बनी. ये भारत ही नहीं पूरी दुनिया में मशहूर होने वाली अलौकिक किताबों में से एक मानी गई हैं. जब लोगों के बीच लगातार ओशो की ख्याति बढ़ने लगी तो सरकार को भी समस्या होने लगी तत्कालीन प्रधानमंत्री को भी ओशो का धुर विरोधी बताया जाता है.
ओशो
अमेरिका में जाकर ओशो ने बसाया अपना शहर
भारत में लगातार मिल रहे विरोध के बाद ओशो ने अमेरिका जाने की ठान ली थी. जहां पहुंचने पर ओशो के अनुयायियों उनके नाम का शहर बना डाला. जिसका नाम रजनीशपुरम रखा गया. इसका निर्माण अमेरिका के मध्य में करीब 64 हजार वर्ग किलोमीटर में किया गया था. जिसमे लोगों की जरूरतों के हिसाब से हर चीजों को रखा गया था. जैसे- शॉपिंग मॉल, एयरपोर्ट, बस स्टॉप, राशन-पानी की दुकान और कई घरों का संग्रह जो बसने वालों अनुयायियों के लिए किया गया था. बताया जाता है ये जगह पहले पूरी तरह से दुर्गम और वीरान थी.
रोल्स रॉयस कार और ओशो
ओशो से मिलने वाले अनुयायी उनके बेहतरीन प्रशंसक होते थे जो उन्हें तरह-तरह की चीजें भेट किया करते थे. उनमे से कई अनुयायियों ने उन्हें तोहफे में उस समय की सबसे महंगी कार रोल्स रॉयस दी थी. आचार्य रजनीश के पास उस समय तकरीबन 96 रोल्स रॉयस कार थीं. एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया था कि वे हर दिन एक नई रोल्स रॉयस कार से अपने आश्रम जाना पसंद करेंगे. वे 365 कार अपने पास रखना चाहते थे. हालांकि ऐसा नहीं हो पाया उन्हें अमेरिका में भी विरोध झेलना पड़ा. वे लगातार अपनी विद्रोही बातों को लेकर सरकार के निशान पर आने लगे थे. उन्हें प्रवासी नियमों की वजह से 17 दिनों तक जेल में भी रहना पड़ा था.
OSHO Said- तुम अपने जीवन के मालिक हो, तुम अपने जीवन को अपने ढंग से जीना, तुम तुम हो, और तुम इसकी फ्रिक मत करना कि लोगों का मत क्या हैं, मत की फ्रिक की तो तुम्हें वो पागल बना के छोड़ेंगे, जिसने लोगों के मत की फ्रिक की वो दो कौड़ी का होके मरता हैं, तुम अपनी भीतर की शांति से, अपने भीतर के आनंद से, अपने भीतर के बोध से जीना, जो तुम्हें ठीक लगता हो उसे करना, तो ही तुम कहीं पहुंच पाओंगे.
ओशों की मृत्यु को लेकर लोगों में मतभेद
अपने अंत समय में ओशो तबीयत खराब होने के कारण अमेरिका से भारत आ गए. उन्हे अन्य किसी देश ने अपने यहां शरण नहीं दी थी. लगातार बढ़ रही समस्याओं के कारण ओशो को बीमारियों ने जकड़ लिया उन्हें सुगंधित इत्रों से एलर्जी होने लगी, पीठ में दर्द और अस्थमा हो गया. जिनसे उनकी और भी परेशानियां बढ़ने लगी थी. कुछ दिनों में ओशो को मधुमेह की भी शिकायत हो गई. उनकी आंखे भी कमजोर होने लगी थी. 19 जनवरी 1990 को ओशो की तबीयत अधिक बिगड़ गई और उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. कहा जाता है उनके विचारों से असहमत लोगों ने उनको जहर दे दिया. जिससे उनकी मौत हो गई. लेकिन इन सारी बातों में आज भी लोगों का मतभेद हैं. ओशो के अनुयायियों ने उनकी समाधि का निर्माण कराया जिस पर आज भी लिखा है ओशो ने 11 दिसंबर 1931 से 19 जनवरी 1990 तक इस पृथ्वी पर भ्रमण किया.
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FIRST PUBLISHED :
October 1, 2024, 12:38 IST