वैसे संडे मार्केट में हुए ग्रेनेड हमले में 12 लोग घायल हुए थे, जिनमें से एक 45 वर्षीय महिला जो कि तब गंभीर रूप से घायल हुई थी, ने भी बाद में दम तोड़ दिया. सुंबल के नैदखाई की रहने वाली आबिदा कौसर उन दर्जनों लोगों में शामिल थीं, जो छर्रे लगने से घायल हुई थीं. तीन स्कूल जाने वाले बच्चों की मां कौसर की लाश ही घर लौटी. जांच में सामने आया कि ग्रेनेड का एक टुकड़ा उसके सिर में जा लगा था, जिससे उसकी मौत हो गई.
CRPF के बंकर पर करना था हमला
वैसे कश्मीर पुलिस ने इस मामले में तीन लश्कर से जुड़े आतंकी गिरफ्तार कर लिए हैं और पूछताछ में सामने आया है की वो ये ग्रेनेड पास में स्थित CRPF के बंकर पर फेंक रहे थे, लेकिन निशाना ठीक ना लगने के कारण भीड़ में ये गिर गया. लेकिन कौसर की मौत ने वो समय याद दिला दिया जब इस तरह के ग्रेनेड हमले कश्मीर घाटी में आम थे. 1990 के दशक़ के ऐसे कई किस्से पुलिसवाले सुनाते हैं. कई परिवार तब ऐसे ग्रेनेड विस्फोटों में तबाह हुए. वैसे नब्बे के दशक से अब तक इस तरह के ग्रेनेड हमले में खत्म हुईं जिंदगियां अब सरकारी फाइल में आंकड़े बन गएहैं.
केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि 1990 के दशक़ में हर साल मारे जाने वाले 'नागरिकों' की संख्या 800 के पार होती थी. 1995 में 1200 आम नागरिक मारे गए थे और 1996 ये संख्या बढ़ कर 1464 हो गई थी.यह वह दौर था जब आतंकी चुन-चुन कर मुखबिरी के शक में मार रहे थे. यह तस्वीर 2008 में कुछ हद तक बदली, जब नागरिकों की हत्या की संख्या दहाई में आई. हालांकि 2010 में पत्थरबाजी और पुलिस की जवाबी कार्रवाई में इस इलाके में 129 लोग मारे गए थे, लेकिन उनमें से ज्यादातर मामलों में न नफ्तीश हुई ना FIR दर्ज हुई.
2016 में भी बुरहान वाणी के एनकाउंटर के बाद भी इस इलाक़े ने हिंसा का एक खौफनाक दौर देखा था. तब आतंकियों के ज़नाजे निकलते थे. कई सक्रिय आतंकी उन जनाजों में शामिल होते थे और पत्थरबाजी होती थी और फिर बेगुनाह मारे जाते थे.
तब भी घाटी में 100 से ज्यादा लोग मारे गए थे, लेकिन उनका ज़िक्र भी इन आकंड़ों में नहीं है. उस समय जो पुलिसवाले यहां इस इलाके में तैनात थे, वे कहते हैं ऐसा इसीलिए के वे सब मौतें कानून व्यवस्था में लिखी गई थीं. वे आतंकी हमले में मारे जाने में नहीं गिनी गईं. मामला जो भी इस इलाके के कई परिवारों में कभी पुलिस तो कभी आतंकियों के कारण कई अपनों को खोया है.
अब 2019 के बाद हालात बदले थे. अब न ज़नाजे निकलते हैं और ना मस्जिदों से तराने सुनाई पड़ते हैं. शायद इसीलिए कहा जा रहा था की कश्मीर में हालात बदल गए हैं. नए कश्मीर की तस्वीर कुछ अलग दिखाई दे रही थी. हालांकि जहां तक आम नागरिकों की जिंदगी का सवाल है ताजा केंद्रीय गृह मंत्रालय के आकंड़े बताते हैं कि 2019 से 2023 तक 162 आम नागरिकों की जान जा चुकी है. इस साल भी नवंबर के पहले हफ्ते तक 18 सिविलियन मारे जा चुके हैं.
लेकिन चुनावों के बाद इस तस्वीर में कुछ बदलाव देखने को मिल रहा है. सुरक्षाबलों की तैनाती के बावजूद कई खौफनाक मामले सामने आए, जिनमें या तो प्रवासी मजदूरों को टारगेट किया गया या फिर आम नागरिकों को.
घाटी को लद्दाख से जोड़ने वाली रणनीतिक जेड-मोड सुरंग के निर्माणस्थल पर 20 अक्टूबर को हमले के साथ हाई प्रोफाइल हमलों की एक सीरीज शुरू हुई. हमले में सात लोगों की जान चली गई, जिसमें बड़गाम का एक डॉक्टर भी शामिल था, जो अपनी बेटी की शादी करने के बाद अपनी ड्यूटी पर वापस आया था. इसके बाद गुलमर्ग के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल पर हड़ताल हुई जिसमें दो सुरक्षाकर्मी और दो कुली मारे गए.
तब से कई और हमले हुए हैं, जिनमें कौसर जैसे निर्दोष लोगों की जान चली गई. किश्तवाड़ में दो ग्रामीण गार्ड को आतंकियों ने पुलिस का मुखबिर होने के कारण मार दिया. इन वारदातों की सभी राजनीतिक दलों ने स्पष्ट शब्दों में निंदा की. सुरक्षा बलों ने नई रणनीति बनाई और पूरे जोश के साथ आतंक के भूत को पूरी ताकत से खदेड़ने में लगे हुए हैं. लेकिन ये काम सिर्फ सुरक्षाबलों का नहीं है. इस लड़ाई में आम नागरिक को भी तंत्र की मदद करने की जरूरत है. वैसे केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इसी हफ्ते संसदीय समिति को बताया है कि आम नागरिक की सुरक्षा सरकार की सबसे अहम जिम्मेदारी है.