रिपोर्ट- अमित कुमार
समस्तीपुर: फूलों की खेती करने वालों के बीच भारत के लगभग सभी राज्यों में गेंदे की खेती तेजी से लोकप्रिय हो रही है. हालांकि, गेंदा नर्सरी चरण से लेकर फूलों की कटाई तक फंगल, बैक्टीरियल और वायरल रोगों सहित विभिन्न रोगजनकों के प्रति संवेदनशील होते हैं. फूलों की पैदावार में कमी रोग के प्रकार, पौधों में संक्रमण के चरण और पर्यावरणीय कारकों से प्रभावित होती है. इनमें लगने वालों रोगों को कंट्रोल करने के लिए कई तरह की केमिकल युक्त दवाईयां इस्तेमाल की जाती हैं. ये पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करने के साथ मिट्टी के स्वास्थ्य को खराब करते हैं. ऐसे में कम नुकसान के साथ रोगों को एकीकृत दृष्टिकोण के जरिए कंट्रोल किया जा सकता है.
गेंदा के सामान्य मृदा जनित रोग
डंपिंग ऑफ का नर्सरी में नए मैरीगोल्ड पौधों पर काफी प्रभाव पड़ता है. यह मिट्टी जनित फफूंद रोग पाइथियम, फाइटोफ्थोरा और राइजोक्टोनिया की प्रजातियों के कारण होता है. इस रोग से जुड़े दो प्रकार के लक्षण हैं. पहला लक्षण बीज का उगने से पहले ही सड़ना और पौधा तैयार होने पर सड़ना है. दूसरा लक्षण पौधों के बढ़ने के बाद होता है. संक्रमित पौधे मिट्टी की रेखा के ठीक ऊपर आधार से यानी नीचे से ही सड़ना शुरू कर देते हैं और गिर जाते हैं. लगभग 20 से 25 प्रतिशत नए पौधे इस रोग से प्रभावित होते हैं. कुछ मामलों में यह संक्रमण नर्सरी के भीतर होता है तो नुकसान 100 प्रतिशत तक पहुंच सकता है.
क्या कहते हैं वैज्ञानिक
डॉ राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉक्टर एसके सिंह ने बताया की जड़ सड़ना एक आम मिट्टी जनित बीमारी है. यह मैरीगोल्ड को प्रभावित करती है. यह विभिन्न प्रकार के मिट्टी जनित कवकों जैसे कि राइज़ोक्टोनिया, पायथियम और फाइटोफ्थोरा के कारण होता है. संक्रमित पौधे विकास में रूकावट, पत्तियों का पीला पड़ना और मुरझाना प्रदर्शित करते हैं.
फ्यूज़ेरियम के कारण होने वाला मुरझान
मैरीगोल्ड मुरझाना एक मिट्टी जनित बीमारी है जो कवक फ्यूज़ेरियम ऑक्सीस्पोरम उप-प्रजाति कैलिस्टेफ़ी के कारण होती है. यह बीमारी मैरीगोल्ड पौधों की संवहनी प्रणाली को प्रभावित करती है जिससे मुरझाना, पत्तियों का पीला पड़ना और अंततः पौधे की मृत्यु हो जाती है. आमतौर पर लक्षण बुवाई के लगभग तीन सप्ताह बाद दिखाई देते हैं. संक्रमित पौधे नीचे से शुरू होकर पत्तियों का धीरे-धीरे पीलापन दिखाते हैं, जबकि ऊपरी भाग मुरझाना शुरू हो जाता है और अंततः पूरा पौधा पीला हो जाता है और सूख जाता है. इस बीमारी के लिए जिम्मेदार कवक के विकास के लिए आदर्श तापमान सीमा 25 डिग्री सेल्सियस और 30 डिग्री सेल्सियस के बीच है.
वैज्ञानिक एसके सिंह ने कवकनाशी के प्रयोग के बारे में बताया
उन्होंने कहा कि रोग की उग्र अवस्था में कार्बेंडाजिम या क्लॉरोथैनोनिल का उपयोग करें. 2 ग्राम दवा को एक लीटर पानी में घोलकर अच्छे से मिट्टी में मिलाएं. इस प्रक्रिया से रोग की उग्रता में काफी कमी आएगी. यदि क्षेत्र में मृदा जनित रोगों की समस्या है तो फफूंदनाशकों का उपयोग करना उचित रहेगा. लेबल पर दिए गए निर्देशों का पालन करें और निवारक उपाय के रूप में कवकनाशी का प्रयोग करें.
जैविक नियंत्रण
पौधों की प्रतिरक्षा को बढ़ाने के लिए माइकोरिज़ल कवक जैसे लाभकारी सूक्ष्मजीवों को मिट्टी में शामिल करें. बीज बोने से पहले ट्राइकोडर्मा विरिडी का उपयोग करें. 5 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें. इसके अलावा स्यूडोमोनास फ्लोरसेन्स का 1.5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से अनुप्रयोग भी प्रभावी रहता है.
मृदा सौरीकरण
सोलराइजेशन एक प्रभावी तकनीक है. गर्मी के महीनों में मिट्टी को पारदर्शी प्लास्टिक से ढकें, जिससे मिट्टी का तापमान बढ़े और रोगजनकों का विनाश हो सके. यह प्रक्रिया रोग नियंत्रण के लिए अत्यंत लाभकारी होती है.
जल प्रबंधन
अत्यधिक पानी देने से बचें. अधिक गीली मिट्टी जड़ रोगों को बढ़ावा देती हैं. ड्रिप सिंचाई प्रणाली का उपयोग करें, ताकि पानी सीधे पौधों के आधार तक पहुंचे और पत्तियों पर मिट्टी के छींटे कम हों.
सतर्क निगरानी
गेंदे के पौधों का नियमित निरीक्षण करें, ताकि रोग के लक्षणों का शीघ्र पता चल सके. त्वरित पहचान से प्रभावी रोग प्रबंधन संभव होता है.
Tags: Local18
FIRST PUBLISHED :
September 23, 2024, 18:27 IST