बिलासपुर में आदिवासी समुदाय ने मनाया गौरा-गौरी विवाह का अनूठा पर्व
बिलासपुर . छत्तीसगढ़ में आदिवासी समुदाय द्वारा शिव-पार्वती की विवाह की याद में गौरा-गौरी विवाह मनाया जाता है. देवउठनी एकादशी के दिन गौरा-गौरी की पूजा भी होती है. महिलाएं मंगलगीत गाते हुए गौरा-गौरी की पूजा करती हैं और फिर उनका विवाह कराया जाता है. आयोजन ऐसा होता है जैसे वो अपनी बेटी को शादी के बाद ससुराल के लिए विदा कर रही हों. मां पार्वती को गौरी और भगवान शिव को गौरा का रुप माना जाता है. इस आयोजन में सभी समाज के लोग शामिल होते हैं.
आदिवासी समाज के लिए विशेष है ये पूजा
बिलासपुर के कोनी में आदिवासी समुदाय द्वारा भव्य रूप से गौरा-गौरी का विवाह किया गया. जहां बड़ी संख्या में आदिवासी समाज के लोग मौजूद थे. आदिवासी समाज के लोगों ने बताया कि गौरा-गौरी और बुढ़ा देव उनके इष्ट देवता हैं. गौरा-गौरी विवाह के दौरान वे लोग गौरा को अपने घर और गौरी को दूसरे के घर पर रखते हैं. पारंपरिक विवाह की तरह गौरी और गौरा का भी विवाह करते हैं. विधि-विधान से पूजा अर्चना करते हुए तालाब में विसर्जन किया जाता है. बुढ़ादेव आदिवासी समाज के कुल देवता हैं, जिसे शंकर भगवान का रूप माना जाता है. यही कारण है कि यह विवाह आदिवासी समाज के लिए विशेष मायने रखता है.
महिलाएं लेटकर मांगती है आशीर्वाद
विसर्जन के दौरान महिलाएं मंगल गीत गाती हैं, मांदर और झांझ मंजीरे की धूम में सभी लोग नाचते और गाते हैं. विसर्जन के दौरान महिलाएं गौरा-गौरी और बुढ़ादेव को सिर पर रखकर कतार में चलती हैं, जिसके सामने महिलाएं लेटकर आशीर्वाद और मनोकामना मांगती हैं.
सोंटे से मार खाने से दुख-दर्द होता है कम
गौरा-गौरी पूजा के दौरान सोंटे मारे जाते हैं. मौजूद लोग के हाथों पर सोंटे मारा जाता है, जिसे भगवान का आशीर्वाद और प्रसाद माना जाता है. मान्यता है कि सोंटे से मार खाने के बाद सभी तरह की परेशानियां दूर हो जाती है और खुशहाली आती है.
कुवांरी मिट्टी से बनते हैं शिव-पार्वती की मूर्तियां
इस पर्व के लिए लोग गांव के बाहर मिट्टी लेने जाते हैं और उसी मिट्टी से शिव-पार्वती की मूर्तियां बनाते हैं. पार्वती (गौरी) कछुए पर और शिव (गौरा) बैल पर विराजमान किए जाते हैं. इन्हें सुंदरता से सजाया जाता है. गौरी-गौरा की झांकी पूरे गांव में घुमाई जाती है. इस दौरान कुंवारे युवक और युवतियां सर पर गौरी-गौरा रखकर गांव भर में घूमते हैं. साथ ही ग्रामीण लोकगीत, नृत्य और वाद्य यंत्रों की धुन पर थिरकते हुए उत्सव का आनंद लेते हैं.
पारंपरिक वाद्य यंत्रों की धुन में थिरकते हैं लोग
गौरी-गौरा के इस पर्व में गंडवा बाजा का विशेष आकर्षण होता है, इसमें दमऊ, सींग बाजा, ढ़ोल, गुदुम, मोहरी, मंजीरा, झुमका, दफड़ा और ट्रासक बजाए जाते हैं. पुरुष वाद्य यंत्र बजाते हैं और महिलाएं गौरी-गौरा लोकगीत गाती हैं. माना जाता है कि इस दौरान ग्रामीणों पर देवता सवार होते हैं, जिससे पूरे माहौल में भक्तिभाव और उल्लास का संचार हो जाता है. इसमें आदिवासी समाज के अलावा अन्य वर्गों के लोग भी शामिल होते हैं.
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FIRST PUBLISHED :
November 16, 2024, 11:06 IST