सिरदर्द पूरे साल का, फिर चुनावी मौसम में ही क्‍यों रोते हैं परिवारवाद का रोना?

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परिवारवाद… एक बार फिर यह शब्‍द खूब चर्चा में है. खासकर, झारखंड और महाराष्‍ट्र में. जहां विधानसभा चुनाव के लिए टिकट बांटे जा रहे हैं. चुनाव के समय यह शब्‍द चर्चा में आ ही जाता है और चुनाव के बाद गुम भी हो जाता है. जबकि ऐसा नहीं है कि परिवारवाद केवल चुनाव के टिकट बांटने के वक्‍त ही दिखाया जाता है. फिर भी इसका शोर चुनाव तक ही सीमित रहता है. यही वजह है कि काफी आलोचनाओं के बावजूद परिवारवाद का कुछ बिगड़ नहीं पाता है.

परिवारवाद को चुनावी टिकट बंटवारे तक के सीमित संदर्भ में देखना भी ठीक नहीं है. व्‍यापक दायरे में देखें तो परिवारवाद का मतलब है अवसरों का असमान बंटवारा. संसाधनों का असमान बंटवारा. योग्‍यता से इतर, अलग पैमानों पर परख कर किसी को अवसर देना. जब इस तरह के विस्‍तृत फलक में देखते हुए हम परिवारवाद के असर का आकलन करेंगे और इसका समाधान सोचेंगे तभी सही मायनों में राजनीति से भी परिवारवाद खत्‍म हो सकेगा.

बहरहाल, हम बात करते हैं राजनीति में परिवारवाद की. ‘भाजपा परिवारवाद विरोधी पार्टी है और कांग्रेस केवल परिवारवाद चलाती है.’ भाजपा नेताओं के मुंह से हम ऐसा ही सुनते रहे हैं. लेकिन, चुनाव के लिए उम्‍मीदवारों की सूची आई तो लगता है कि भाजपा क्‍या है, इस बारे में भाजपा नेताओं को या तो जानकारी नहीं है या फिर वे जान-बूझकर जनता को बरगलाने के लिए कुछ भी बोल देते हैं.

बात आगे बढ़ाने से पहले टिकट बंटवारे में परिवारवाद की कुछ बानगी देख लेते हैं. पहले झारखंड के कुछ उम्‍मीदवारों के नाम…

  • पोटका से मीरा मुंडा (पूर्व सीएम और केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा की पत्‍नी)
  • घाटशिला से बाबू लाल सोरेन (पूर्व सीएम चंपाई सोरेन के बेटे)
  • जमशेदपुर-पू से पूर्णिमा दास साहू (पूर्व सीएम रघुवर दास की बहू)
  • जगन्‍नाथपुर से गीता कोड़ा (पूर्व सीएम मधु कोड़ा की पत्‍नी)
  • सिंदरी से तारा देवी (विधायक इंद्रजीत महतो की पत्‍नी)
  • झरिया से रागि‍नी सिंह (पूर्व विधायक संजीव सिंह की पत्‍नी)
  • बाघमारा से शत्रुघ्‍न महतो (सांसद ढुलू महतो के भाई)
  • बड़कागांव से रोशन चौधरी (सांसद सीपी चौधरी के भाई)

महाराष्‍ट्र में भी परिवारवाद
महाराष्‍ट्र में पूर्व सीएम अशोक चव्‍हाण की बेटी श्रीजया चव्‍हाण को पिता की सीट भोकर (नांदेड़) से टिकट मिला. पूर्व केंद्रीय मंत्री नारायण राणे के बेटे नीतेश राणे को कांकावली (सिंधुदुर्ग) से उम्‍मीदवार बनाए गए. राज्‍यसभा सांसद धनंजय महादिक के छोटे भाई अमल महाडिक को कोल्‍हापुर दक्षिण से उतारा गया है. पूर्व सीएम शिवाजीराव पाटिल निलंगेकर के पोते संभाजी पाटिल निलंगेकर को निलंगा से बीजेपी ने टिकट दिया है. मुंबई भाजपा अध्‍यक्ष आशीष सेलार के भाई विनोद शेलार को मलाड पश्‍च‍िम से और खुद आशीष सेलार को बांद्रा पश्‍चिम से टिकट मिला है. पूर्व केंद्रीय मंत्री रावसाहेब दानवे के बेटे संतोष दानवे को भी टिकट मिला है. विधायक गणपत गायकवाड़ की पत्‍नी सुलभा गायकवाड़ और पूर्व सांसद अनिल शिरोले के बेटे सिद्धार्थ भी उम्‍मीदवार हैं.

इस तरह, एक बार फिर चुनाव का मौसम आया और पार्ट‍ियां बेपरदा होने लगीं. परिवारवाद से दूर रहने का दावा करने वाली भाजपा में परिवारवाद को लेकर ही बगावत हो गई है. झारखंड में अर्जुन मुंडा की पत्‍नी मीरा मुंडा को टिकट दिए जाने के खिलाफ दो नेताओं ने पार्टी छोड़ दी. कई और बागी हुए हैं. कुछ ने तो प्रेस कॉन्‍फ्रेंस कर विरोध जताया है.

ऐसा नहीं है कि इस तरह की स्‍थ‍िति अकेले भाजपा में हो. कोई भी पार्टी इस परिवारवाद अछूती नहीं है. जिस झारखंड और महाराष्‍ट्र में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं वहां तो खानदानी नेतृत्‍व के तहत चलने वाली पार्टी में सत्‍ता में है या रही है. झारखंड में शिबू सोरेन की राजनीतिक विरासत उनका बेटा व पूरा परिवार ढो रहा है. वहीं, महाराष्‍ट्र में शिवसेना की राजनीति ठाकरे खानदान ही आगे बढ़ा रहा है. खानदान से बाहर का कोई आया तो बगावत करके ही आया.

भारतीय राजनीति में वंशवाद का इतिहास कोई नया नहीं है. आजादी के बाद से ही भारतीय राजनीति में वंशवाद की जड़ मजबूत होती रही है. इसकी शुरुआत नेहरू-गांधी परिवार से मानी जाती है.

पंडित नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी, और अब राहुल गांधी व प्रियंका गांधी तक, यह परिवार दशकों से भारतीय राजनीति में हावी है.

यादव परिवार (उत्तर प्रदेश और बिहार): मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक विरासत को अखिलेश यादव आगे बढ़ा रहे हैं, जबकि बिहार में लालू प्रसाद यादव के पुत्र तेजस्वी और तेजप्रताप सक्रिय हैं.

ठाकरे परिवार (महाराष्ट्र): शिवसेना में नेतृत्व हमेशा परिवार के इर्द-गिर्द ही रहा है- बाल ठाकरे से उद्धव ठाकरे और फिर आदित्य ठाकरे तक.

परिवारवाद लोकतंत्र के विकास की राह में रोड़ा है. फिर भी, क्‍यों परिवारवाद की जड़ कमजोर नहीं हो पा रही? इसके कई कारण हैं. कई मतदाता परिचित चेहरों को पसंद करते हैं, यह मानते हुए कि पारिवारिक विरासत स्थिरता लाएगी. राजनीतिक दल वफादारी बनाए रखने के लिए वंशवादी नेताओं का समर्थन करते हैं, जिससे जमीनी नेताओं को नजरअंदाज किया जाता है. प्रभावशाली राजनीतिक परिवारों के पास चुनाव अभियान के लिए धन और संसाधन होते हैं, जो उन्हें पार्टियों के लिए आकर्षक विकल्प बनाते हैं.

हालांकि, यह भी तय है कि किसी खानदान का होना मात्र चुनावी जीत की गारंटी नहीं है, जनता ने कई बार यह भी दिखाया है. लेकिन, हर बार नहीं दिखाया. शायद इसीलिए, पार्टियां हर बार ‘रिस्‍क’ ले लेती हैं.

परिवारवाद के आधार पर पद या टिकट बांटना संविधान की मूल भावना पर चोट पहुंचाता है. नेताओं का इसके आधार पर टिकट बांटने का विरोध करना लोकतंत्र के लिए अच्‍छा संकेत है. लेकिन, उनका यह विरोध पार्टी पर हावी नहीं हो पाता है. इसकी मूल वजह यह है कि उनका विरोध सैद्धांतिक या वैचारिक नहीं होता, बल्‍क‍ि परिस्‍थ‍ितिजन्‍य और अपने पक्ष में दबाव बनाने की नीति के तहत किया गया होता है. अगर पार्टी का हर कार्यकर्ता और नेता केवल चुनाव के समय ही नहीं, बल्‍क‍ि हर समय इस तरह के निर्णय के विरोध में उतरे तो पार्ट‍ियों में प्रतिभा के आधार पर पद देने की संस्‍कृति विकसित हो सकती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमेशा परिवारवाद की राजनीति के खिलाफ बात की है. उनकी जिम्‍मेदारी है कि वह पार्टियों में अंदरूनी लोकतंत्र बहाल करने का भी पुख्‍ता इंतजाम करें.

Tags: Jharkhand predetermination 2024, Maharashtra predetermination 2024

FIRST PUBLISHED :

October 21, 2024, 20:50 IST

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