1970 के दौर में मार्क्सवादी चिंतक ए.के. रॉय (A.K. Roy) ने अपनी किताब 'झारखंड से लालखंड' में शिबू सोरेन (Shibu Soren) को लेकर लिखा था कि शिबू में न सिर्फ झारखंड, बल्कि देश का नेता बनने की क्षमता है. रॉय ने लिखा था कि शिबू सोरेन पूरे देश को नेतृत्व दे सकते हैं. हालांकि ए.के. रॉय की वो बात पूरी नहीं हुई. लेकिन हेमंत सोरेन ने झारखंड की सत्ता पर शानदार वापसी कर दूसरे जनरेशन की लड़ाई को मजबूत कर दिया. जिस समय में पूरे देश में गैर बीजेपी दलों की हार हुई है उस हालत में झारखंड में जेएमएम को शानदार सफलता मिली है. हेमंत सोरेन ने दो तिहाई सीटों पर जीत उस दौर में प्राप्त किया है जब वो कुछ ही महीने पहले भ्रष्टाचार के मामले में जेल से रिहा होकर आए हैं. और उनकी पार्टी के लगभग नंबर 2 माने जाने वाले चंपई सोरेन, उनकी भाभी सीता सोरेन जैसे दिग्गजों ने उनका साथ छोड़ दिया है.
झारखंड विधानसभा चुनाव के दौरान मैं झारखंड में था, इस दौरान मैंने हेमंत सोरेन के विकास मॉडल और उनकी राजनीति को समझने की कोशिश की. झारखंड के शहरी क्षेत्र से अगर कोई घूमकर वापस आ जाए तो उसे हेमंत सोरेन की सरकार के द्वारा किए गए कार्य शायद ही नजर आएंगे. क्योंकि झारखंड की शहरों में पिछले 5 साल में बहुत उल्लेखनीय कार्य नहीं हुए हैं. लेकिन जैसे-जैसे आप ग्रामीण और सुदूर क्षेत्र की तरफ बढ़ेंगे तो हेमंत सोरेन की रणनीति आपको समझ में आएगी.
हेमंत सोरेन ने अपने कोर वोटर्स को पिछले पांच साल में साधा है. गांव-गांव में पेयजल, सड़क, बिजली जैसी आवश्यकताओं को पहुंचाया गया है. साथ ही जेएमएम के पुराने हो चुके झंडों की जगह पर नए झंडे पहुंचे हैं.अर्थात नए लोगों को भी पार्टी से जोड़ा गया है.
आदिवासियों के सर्वमान्य नेता के तौर पर स्थापित हो रहे हैं हेमंत सोरेन
शिबू सोरेन के दौर से ही आदिवासी जेएमएम के कोर वोटर्स रहे हैं. लेकिन उस दौरान आदिवासी वोटर्स के कई दावेदार हुआ करते थे. झारखंड में 32 तरह के जनजाति हैं. हर बड़े जनजाति समूह के पास अपना नेता था. संथाल आदिवासी जहां शिबू सोरेन के साथ जुड़े थे वहीं पहाड़िया और मुंडा और उरांव जैसी जनजातियों का झुकाव अधिकतर बीजेपी और कुछ हिस्सा कांग्रेस के साथ हुआ करता था. लेकिन हेमंत सोरेन पहले ऐसे नेता बनकर उभरे हैं जिसकी स्वीकार्यता संथाल से लेकर कोल्हान तक है. छोटानागपुर के गावों से लेकर पलामू तक आदिवासियों के सर्वमान्य नेता के तौर पर हेमंत सोरेन उभरे हैं. बीजेपी के कद्दावर नेता पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा की पत्नी भी चुनाव नहीं जीत पायी. मधु कोड़ा की पत्नी भी चुनाव हार गयी. बाबूलाल मरांडी को जीतने के लिए समान्य सीट का रुख करना पड़ा. राज्य में आदिवासी वोट बैंक पूरी तरह से जेएमएम के साथ खड़ा दिख रहा है.
झारखंड में आरएसएस बेहद मजबूत, लेकिन हेमंत ने खोज ली काट
1970 की दशक से ही झारखंड में आरएसएस ने जमकर काम किया और 1990 की दशक से बीजेपी झारखंड के क्षेत्र में हमेशा से मजबूत रही है. विपरित हालत में भी बीजेपी का वोट शेयर और सीट बहुत नीचे नहीं जाता रहा है. झारखंड की कोई भी ऐसी विधानसभा सीट नहीं है जहां बीजेपी का पॉकेट वोट 50 हजार से कम हो. बीजेपी के पास हर सीट पर उम्मीदवारों का एक पैनल रहा है. बिहार और बंगाल जैसे राज्यों की तुलना में बीजेपी झारखंड में आज भी बेहद मजबूत है. ऐसे में बीजेपी को झारखंड में हराना बेहद कठिन है.लेकिन हेमंत सोरेन की रणनीति के सामने बीजेपी के दो दिग्गज नेता शिवराज सिंह चौहान और हिमंत विस्वा सरमा को भी मात खानी पड़ी.
बीजेपी ही नहीं कांग्रेस पर निर्भरता भी हुई कम
झारखंड में एक दौर में जेएमएम एक दर्जन तक सीटें जीतने के हालत में हुआ करती थी. 2000 के बाद चुनाव जीतने के लिए जेएमएम को बहुत हद तक कांग्रेस के साथ गठबंधन पर निर्भर होना पड़ता रहा था. कांग्रेस के साथ आने के बाद ही मुस्लिम मतों का बड़ा हिस्सा जेएमएम के साथ आता था. लेकिन पिछले पांच साल में झारखंड के समीकरण काफी कुछ बदल गए. मुस्लिम और आदिवासी मत का एक बड़ा हिस्सा हेमंत के पीछे खड़ा है. बीजेपी की तरफ से इसे तोड़ने के लिए जमीन पर जमकर मेहनत की गयी. कुछ जगहों पर कामयाबी भी मिली लेकिन परिणाम बहुत अच्छे नहीं रहे. अब कांग्रेस के पास भी जेएमएम के पीछे खड़े रहने की मजबूरी काफी बढ़ गयी है.
झारखंड विधानसभा में बिना कांग्रेस के विधायकों के भी जेएमएम, भाकपा माले और राजद के विधायको की संख्या 40 तक पहुंच रही है. जो कि बहुमत के आंकड़ों से महज एक कम है. राज्यसभा के होने वाले चुनावों पर इसका असर अवश्य देखने को मिलेगा.
4 दशक पुराने 'लाल हरा मैत्री' को हेमंत ने फिर से कर दिया जिंदा
झारखंड अलग राज्य आंदोलन के दौरान जेएमएम की स्थापना के बाद ए.के. रॉय की नेतृत्व वाली मासस और शिबू सोरेन की नेतृत्व वाली जेएमएम एक ही साथ चुनाव में उतरा करती थी. हालांकि समय के साथ हालात बदले और दोनों के रास्ते अलग हो गए. हालांकि सैद्धांतिक तौर पर दोनों ही दलों के विचारों में काफी कुछ समानता रही थी. हाल ही में मासस का भाकपा माले में विलय हो गया और नए रूप में एक बार फिर लाल हरा मैत्री की शुरुआत हुई. इसका फायदा भी हुआ, उत्तरी छोटानागपुर क्षेत्र की तीन विधानसभा सीटें चंदनक्यारी, सिंदरी और निरसा जेएमएम और भाकपा माले गठबंधन ने बीजेपी से छीन लिया.
चंदनक्यारी सीट से बीजेपी के विधानसभा में विधायक दल के नेता रहे अमर बाउरी चुनाव हार गए. सिंदरी सीट पर 25 साल बाद लाल झंडे की वापसी हो गयी. वहीं निरसा सीट जिसे इतिहास में पहली दफा बीजेपी ने 2019 में जीता था उसे एक बार फिर लाल झंडे ने जीत लिया.
सिंदरी की चुनावी सभा में हेमंत सोरेन और भाकपा माले के प्रत्याशी चंद्रदेव महतो
हेमंत ने कैसे दे दी बीजेपी को मात?
झारखंड में आज के समय में सबसे मजबूत आईटी सेल जेएमएम के पास है. जेएमएम की जिस स्तर की सक्रियता सोशल मीडिया में पिछले 6-7 साल में हुई है वो किसी भी दल के पास नहीं है. जयराम महतो की पार्टी ने भी कोशिश की लेकिन जमीनी हालत कमजोर रहने के कारण उस स्तर की सफलता उसे नहीं मिल पायी. सोशल मीडिया की ताकत में जेएमएम झारखंड में बीजेपी से काफी आगे है. हेमंत सोरेन ने न सिर्फ राष्ट्रीय मुद्दों को झारखंड में हावी नहीं होने दिया बल्कि अपने परंपरागत वोटर्स को बांधकर रखा. जो किसी दौर में बिछड़ गए थे अगर वो सम्मान के साथ आना चाहे तो उन्हें पार्टी में या गठबंधन में लाया गया.
झारखंड में स्थानीय लोगों में आयी आर्थिक मजबूती
जेएमएम के शासन के दौरान झारखंड के स्थानीय लोगों का हस्तक्षेप झारखंड की खनीज संपदा पर बढ़ा है. एक दौर में बाहर के व्यापारी जो काम झारखंड में करते थे वो अब स्थानीय लोगों के हाथ में आए हैं. गांव में पैसों का प्रवाह तेजी से बढ़ा है. हेमंत सोरेन की जेएमएम ने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तीनों स्तर पर अपने लोगों को जोड़ा है, जिसमें शायद शिबू सोरेन भी पिछड़ गए थे. जेएमएम को हेमंत सोरेन ने आर्थिक और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर मजबूत किया है. साथ ही पढ़ने लिखने वाले एक बड़ी जमात को भी हेमंत ने अपने साथ जोड़ा है. सिविल सोसाइटी का साथ भी उन्हें मिलता रहा है. मीडिया के साथ भी हेमंत सोरेन के रिश्ते हमेशा से अच्छे रहे हैं. कई मोर्चे पर एक साथ काम कर हेमंत ने बीजेपी को झारखंड में मात दी है.
सचिन झा शेखर NDTV में कार्यरत हैं. राजनीति और पर्यावरण से जुड़े मुद्दे पर लिखते रहे हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.