काली मां
सागर. पिछले 9 दिनों से देश भर में नवरात्रि की धूम मची हुई है. कल यानी शनिवार को विजयदशमी पर पंडालों में विराजमान देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाएगा. इसके लिए श्रद्धालुओं के द्वारा एक से बढ़कर एक झांकियां तैयार की जाती हैं. कोई ट्रैक्टर पर ले जाता है तो कोई ट्रक पर ले जाता है, लेकिन सागर की अद्भुत अद्वितीय 18 भुजाओं वाली चल माई काली माई के रूप में विराजमान महिषासुर मर्दिनी को भक्तों के कंधों पर ले जाया जाता है. वे भक्तों के कंधों पर ही सवार होकर शहर में निकलती हैं. अंग्रेजी शासन काल में शुरू हुई यह परंपरा 120 साल बाद भी ऐसे ही जारी है,
दरअसल, सागर शहर के पुरव्याऊ टोरी पर विराजी मां कांधे वाली काली का गौरवशाली इतिहास रहा है. सन 1905 में यहां मूर्तिकार हीरासिंह राजपूत ने गणेशजी, कार्तिकेय, मां सरस्वती व मां लक्ष्मी के साथ दुर्गाजी के स्वरूप में मां की प्रतिमा विराजित की थी. तभी से शारदीय नवरात्र में मां को उसी स्वरूप में विराजने का सिलसिला अनवरत चला आ रहा है.
मिट्टी से तैयार होती है प्रतिमा
खास बात यह है कि प्रतिमा के निर्माण में किसी तरह के केमिकल का इस्तेमाल नहीं किया जाता. मिट्टी, वाटर कलर और हाथ से बनी श्रृंगार सामग्री से मां को दिव्य स्वरूप में विराजते हैं. मां को 120 साल पहले चांदी की जो पायजेब पहनाई गई थी वह आज भी सुरक्षित है और हर साल इसी से मां का श्रृंगार किया जाता है. इसके अलावा पलीता (मशाल) के साथ कांधे पर ले जाकर तालाब में विसर्जन की परंपरा आज भी जारी है.
चार पीढ़ी से चल रही परंपरा
कमेटी के अध्यक्ष राजेंद्र सिंह बताते हैं कि उनके पूर्वजों ने चार पीढ़ी पहले इस परंपरा की शुरुआत की थी. उस समय जो मिट्टी और घास प्रतिमा के निर्माण के लिए इस्तेमाल की गई थी, आज भी हम उसी मिट्टी और घास का उपयोग करके प्रतिमा बनाते आ रहे हैं. यह शहर की सबसे प्रसिद्ध काली प्रतिमा है, जहां रोजाना हजारों की संख्या में श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं.
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FIRST PUBLISHED :
October 11, 2024, 09:48 IST