Agency:News18 Uttarakhand
Last Updated:February 03, 2025, 04:35 IST
National Games 2025: रामजी कश्यप ने कहा कि वह राष्ट्रीय खेलों में प्रतिभाग करने अपनी टीम के साथ हल्द्वानी पहुंचे हैं. उनकी टीम ने बेहतरीन प्रदर्शन किया और गोल्ड मेडल जीता.
हल्द्वानी. खेल जगत में जुनून और संघर्ष की कई कहानियां हैं, जो यह साबित करती हैं कि मेहनत से हर सपना पूरा हो सकता है. ऐसी ही प्रेरणादायक कहानी है महाराष्ट्र की खो-खो टीम के खिलाड़ी रामजी कश्यप की, जिन्होंने कठिन परिस्थितियों के बावजूद सफलता हासिल की और अपने परिवार का नाम रोशन किया. रामजी कश्यप महाराष्ट्र की खो-खो टीम के लिए जर्सी नंबर 6 पहनकर खेलते हैं. उनका परिवार आर्थिक रूप से कमजोर था. उनके पिता और बड़े भाई आज भी कबाड़ बेचने का काम करते हैं, जबकि छोटा भाई भी खो-खो का खिलाड़ी है. एक समय ऐसा था, जब रामजी के पास खेलने के लिए जूते तक नहीं थे. परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने से वह जूते तक नहीं खरीद सकते थे लेकिन उनके जुनून और मेहनत ने उन्हें इस मुकाम तक पहुंचाया. आज रामजी अपने शानदार खेल के दम पर केंद्र सरकार की नौकरी भी हासिल कर चुके हैं.
रामजी कश्यप महाराष्ट्र की खो-खो टीम के एक कुशल खिलाड़ी हैं. उन्होंने कहा कि वह राष्ट्रीय खेलों में प्रतिभाग करने अपनी टीम के साथ हल्द्वानी पहुंचे हैं. नेशनल गेम्स में उनकी टीम ने बेहतरीन प्रदर्शन किया और स्वर्ण पदक अपने नाम किया. उन्होंने बताया कि वह खो-खो में अपने प्रदर्शन से अपनी टीम के लिए हर संभव योगदान करते आए हैं. हल्द्वानी में खो-खो में एक बार फिर से गोल्ड मेडल जीतकर उन्हें काफी अच्छा लग रहा है. रामजी कश्यप ने युवाओं से अपील करते हुए कहा कि वे खेलों में बढ़-चढ़कर भाग लें.
जुनून ने दिलाई सफलता
रामजी कश्यप बताते हैं कि जब वह 11 साल के थे, तभी से उन्होंने खो-खो खेलना शुरू कर दिया था. उन दिनों घर में गरीबी होने के कारण उन्हें घर का कोई सपोर्ट नहीं मिला था लेकिन वह बचपन से ही खो-खो का खिलाड़ी बनना चाहते थे. जिसके लिए उन्होंने अपने परिवार की बात नहीं मानी और अपना खेल जारी रखा. इस तरह उन्होंने कई स्थानीय और राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में प्रतिभाग किया. आज खो-खो ने उन्हें सरकारी नौकरी के साथ ही समाज में एक अलग पहचान भी दिलाई है.
Location :
Haldwani Talli,Nainital,Uttarakhand
First Published :
February 03, 2025, 04:35 IST
खो-खो ने बदली रामजी की किस्मत, कभी जूते खरीदने तक को नहीं थे पैसे