नाथद्वारा के श्रीनाथ जी मंदिर में दलितों का प्रवेश और कैलाश सत्यार्थी का संघर्ष

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(ये 'दियासलाई ' नाम की किताब के अंश हैं. इस किताब के लेखक हैं कैलाश सत्यार्थी. वे अब तक शांति का नोबेल पुरस्कार जीतने वाले भारत के एकमात्र व्यक्ति हैं. यह किताब उनकी आत्मकथा है. इसका लोकार्पण 30 जनवरी को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में हुआ था. कैलाश सत्यार्थी 'बचपन बचाओ आंदोलन' के संस्थापकों में से एक है.)


शूद्रों एवं विधर्मियों का प्रवेश विजर्त है...

नाथद्वारा के श्रीनाथ जी मंदिर की दीवार पर लिखा था-'शूद्रों एवं विधर्मियों का  का प्रवेश वर्जित है'. हमने दलितों के मंदिर प्रवेश से रोकने की प्रथा को खत्म कराने का फैसला किया. स्वामी अग्निवेश,हरिजन कार्यकर्ता हजारीलाल जाटौलिया, और मैंने मिलकर योजना बनाई. हमारा उद्देश्य था पंडों-पुजारियों की ज्यादितियां रोकना और दलित समाज का मनोबल बढ़ाना.

02 अक्टूबर 1988 कोस मैं करीब 30 दलितों का जत्था लेकर नाथद्वारा पहुंचा. हाई कोर्ट से आदेश और पुलिस सुरक्षा के बावजूद माहौल तनावपूर्ण था. मंदिर के मुख्य दरवाजे पर पहुंचे तो वहां ताला लगा था. पुलिस धर्मस्थल में जूते, चमड़े के बेल्ट और हथियार के साथ प्रवेश नहीं कर सकती थी, इसलिए हम अकेले ही अंदर गए.

जैसे ही दरवाजा खोलकर भीतर पहुंचे, अचानक 20-25 हथियारबंद लोग तलघर से बाहर आ गए. उनके पास लोहे के मूसल, लाठियां, और अन्य हथियार थे.एक पंडा मुझे पकड़कर चिल्लाया, "तू भंगियों का नेता है? मंदिर को अपवित्र किया है. अब तेरी बली चढ़ाकर इसे पवित्र करेंगे.'' उन्होंने  मुझ पर हमला कर दिया. जाटौलिया जी और अन्य साथियों ने मुझे बचाने की कोशिश की, लेकिन वे भी पिट गए. मेरी पीठ पर मूसल की चोट से खून बह रहा था.

मंदिर के भीतर मची इस भगदड़ और हिंसा के बीच पुलिस ने हस्तक्षेप किया. मेरी बहन समान वकील माधुरी सिंह ने अधिकारियों को धमकी दी कि वे कोर्ट में खींचेंगी. सशस्त्र पुलिस ने दरवाजा तोड़कर हमें बचाया. हमलावर किसी चोर रास्ते से भाग निकले.

मैंने छत पर पुलिसकर्मियों को भागते और चिल्लाते देखा. अचानक पास खड़े एक पुलिसकर्मी ने मुझे जोर से धक्का देकर दूर किया. अगले ही पल, छत पर तेज आवाज और धुआं दिखाई दिया. छत की मुंडेर पर मेरे सिर के ठीक सामने मिट्टी का एक घड़ा रखा गया था, जिसमें तेजाब भरा था. हमलावरों ने उसे नीचे गिराकर मुझे जान से मारने का प्रयास किया. लेकिन पुलिस की मुस्तैदी से घड़ा वहीं फूट गया, और मैं बच गया.

मेरे साथी धीरे-धीरे मिल गए और कुछ दलितों ने भारी सुरक्षा में मंदिर के अंदर पूजा-अर्चना की. इस घटना की खबर अखबारों में छपी और पूरे देश में फैल गई. राष्ट्रपति आर वेंकटरमण तक इसकी गूंज पहुंची. उन्होंने दलितों के साथ श्रीनाथ जी के दर्शन करने की इच्छा जताई. इससे केंद्र और राजस्थान सरकारों में खलबली मच गई. कुछ दिनों के भीतर ही मुख्यमंत्री दलितों के एक बड़े समूह को लेकर मंदिर पहुंचे. पंडों ने दलितों का स्वागत किया और पूजा-अर्चना करवाई. नाथद्वारा मंदिर में शूद्रों और गैर-हिंदुओं के प्रवेश पर लगी रोक अब इतिहास बन चुकी है.

कमरे में घुस आई युवती

मैं मनीला के एक सस्ते से होटल में ठहरा था. दोपहर का वक्त था. मैं  अपने कमरे में लेटा था. किसी ने दरवाजा खटखटाया. खोलते ही एक युवती बिना पूछे मुस्कुराती हुई अंदर आ गई. मैं भौंचक्का होकर खड़ा था तभी वह मेरे बिस्तर पर बैठ गई.

मैंने पूछा,''आप कौन हैं , आपको क्या चाहिए?'' वह क्या बोली, ढंग से समझ नहीं  आया. उसका
अंग्रेजी उच्चारण बड़ा अजीब था. 

फिर से वही बात पूछने पर उसने टूटी-फूटी अंग्रेजी में कहा,''आई कम, यू नीड मी'' (शायद तुम्हें  मेरी  कोई जरूरत हो, इसलिए आई हूं.)

मैंने 'न' में  सिर हिलाया तो वह बोली, ''यू टायर्ड, मी मसाज'' (तुम थके हो, मैं मसाज कर देती हूं.) तब तक मैं उसके हाव-भाव समझ चुका था, और संभल भी गया था. मैंने हाथ जोड़कर कहा,''नहीं ,मैं  ठीक हूं, आप चली जाइये.''

उसने हंसते हुए एकदम अपनी टी-शर्ट ऊपर उठा दी. फिर खड़े होकर मेरे दोनों  कंधों  को पकड़ लिया. मैं डर गया. मैं  उसे हाथ पकड़कर भी नहीं निकल सकता था. अनजानी जगह पर वह अगर शोर मचाने लगती तो मेरा क्या होता? किसी तरह मैं कमरा खोलकर तुरंत नीचे भागा. होटल के रिसेप्सन पर बैठने वाली महिला भी नदारद थी. मैं वहां पड़े पुराने सोफे पर बैठ गया. मुझे दूसरा डर  सता रहा था कि कमरे में घुसकर बैठी  युवती कहीं  मेरा सामान चुरा कर गायब न हो जाए. मैं जोर-जोर से रिसेप्शनिस्ट को पुकारने लगा.कुछ मिनटों  के बाद वह युवती गुस्से में बड़बड़ाती हुई सीढ़ियों से उतरती दिखी.मैं सोचता रहा कि वह कितनी मजबूर या गरीबी की वजह से ऐसा करने के  लिए मजबूर हो रही होगी.

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