Last Updated:February 07, 2025, 11:44 IST
Delhi Political History After Independence: सन 1947 में देश आजाद हुआ. दिल्ली भारत की राजधानी पहले से ही थी. यहां के प्रशासन पर चीफ कमिश्नर के माध्यम से केंद्र का ही कब्जा रहा. 1950-51 में पूरे देश के साथ दिल्ली...और पढ़ें
हाइलाइट्स
- सदियों से दिल्ली का राजनीतिक इतिहास तख्तो ताज की अनगिनत कहानियों के लिए मशहूर है
- आजादी से पहले यहां वायरसराय के सीधे हस्तक्षेप में शासन चलता था.
- आजादी के बाद दिल्ली के शासन पर राष्ट्रपति का अप्रत्यक्ष रूप से कब्जा रहा.
Delhi Political History After Independence: दिल्ली को सात बार उजाड़ा गया और सातों बार नई सत्ता ने इसे बसाया भी. आखिरी बार दिल्ली को शाहजहां ने 1630 के आसपास बसाया. मामूली छेड़छाड़ के बाद दिल्ली कमोबेश वही है. लेकिन इसका विस्तार शहजहानाबाद के दिल्ली सराय और चांदनी चौक से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भारत मंडपम और द्वारका के यशोभूमिक कंवेशन सेंटर तक हो गया है. दिल्ली अनगिनत इतिहास का साक्षी रही है. अनगिनित शाही किस्से, अनगिनत दुश्वारियां और अनगिनत सियासी हलचलों का गवाह रही दिल्ली की किस्मत भी देश की स्वतंत्रता के साथ 1947 में बदल गई. 1952 में दिल्ली को पहला मुख्यमंत्री मिला, फिर 1956 से 1993 तक कोई मुख्यमंत्री नहीं बना.लेकिन 1993 से अब तक दिल्ली विधानसभा कई उतार-चढ़ाव के बाद अब तक कायम है. आज हम आपको आजादी के बाद दिल्ली के राजनीतिक इतिहास के हर बारीकी को यहां बताएंगे.
आजादी से पहले का दिल्ली प्रशासन
इससे पहले कि आजादी के बाद दिल्ली के प्रशासन के बारे में आप जानें, अग्रेजों के समय दिल्ली के प्रशासन के बारे में थोड़ी जानकारी ले लीजिए. 1803 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिल्ली के मुगल दरवार में रेजिडेंट की स्थिति हासिल कर ली. 1857 के विद्रोह के बाद दिल्ली को पूरी तरह से ब्रिटिश इंडिया में मिला लिया गया. तब दिल्ली का प्रशासन पंजाब प्रांत के अंतर्गत एक डिवीजन चलाता था जिसका मुखिया रेजिडेंस कमिश्नर होता था. 1911 में जब देश की राजधानी कोलकाता से दिल्ली आ गई. 1919 में दिल्ली को पंजाब प्रांत से अलग कर दिया गया. दिल्ली का चीफ कमिश्नर पंजाब प्रांत से अलग हो गया और वे अब सीधे वायसराय का प्रतिनिधि हुआ करते थे. चीफ कमिशन्र के मातहत दिल्ली में नगर निगम भी था. 1947 में देश के आजाद होने के बाद 1951 तक यह सिलसिला रहा लेकिन वायसराय की जगह देश के प्रधानमंत्री इसके वास्तविक प्रशासक बन गए.
1951-52 में दिल्ली में पहला विधानसभा चुनाव
1950 में जब संविधान लागू हुआ तो दिल्ली को भाग ग के राज्य में केंद्र शासित प्रदेश के रूप में शामिल किया गया. जहां 48 सदस्यों वाले एक विधानसभा के गठन के लिए संसद में स्टेट एक्ट 1951 पास किया गया. इस एक्ट के तहत देश की संसद के साथ-साथ दिल्ली विधानसभा के लिए भी 1951-52 में 42 सीटों के लिए चुनाव हुए. कांग्रेस ने 39 सीटें हासिल की जबकि जनसंघ जो बीजेपी की पूर्व पार्टी है को 5 सीटें मिली, 2 सीटें सोशलिस्ट पार्टी को मिली. 17 मार्च 1952 को कांग्रेस ने 34 साल के ब्रह्म प्रकाश को मुख्यमंत्री बनाया. लेकिन शुरुआत से ही दिल्ली के मुख्यमंत्री को ऑर्डर, जमीन और पुलिस पर कोई अधिकार नहीं दिया गया. दिल्ली के पहले मुख्यमंत्री के समय से चीफ कमिश्नर और अब उपराज्यपाल से जो टकराव है वह आजतक चलता आ रहा है. कई तरह के राजनीतिक टकराव के बाद 12 फरवरी 1955 को ब्रह्म प्रकाश को इस्तीफा देना पड़ा. उनकी जगह पर दरियागंज से विधायक गुरुमुख निहाल सिंह उसी दिन मुख्यमंत्री बने. लेकिन वे भी अपना टर्म पूरा नहीं कर सके और 1 साल 263 दिनों के बाद 1 नवंबर को 1956 को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया.
1956 से 1993 तक बिना मुख्यमंत्री दिल्ली
मुख्यमंत्री और चीफ कमिश्नर के बीच टकराव के मद्देनजर फजल अली के नेतृत्व में राज्य पुनर्गठन आयोग बना जिसने राज्य सरकार की जगह स्थानीय प्रशासन का सुझाव दिया है. इस तरह 1 नवंबर 1956 को दिल्ली को भाग ग के तहत राज्य का दर्जा देने वाली संवैधानिक व्यवस्था को सीज कर दिया गया और दिल्ली में विधानसभा और मुख्यमंत्री के पद को समाप्त कर दिया गया. अब दिल्ली पूरी तरह से राष्ट्रपति के अधीन केंद्र शासित प्रदेश बन गई. जब दिल्ली की जनता में इस फैसले के खिलाफ रोष व्यक्त किया जाने लगा तो एक अन्य कमिटी के सुझाव पर दिल्ली म्युनिसपल कॉरपोरेशन एक्ट 1957 लागू किया गया जिसके तहत दिल्ली में नए सिरे से नगर निगम यानी एमसीडी की स्थापना की गई. हालांकि इससे जनता संतुष्ट नहीं हुई. जनता उसी समय से दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिएजाने की मांग करने लगी. इस बात को ध्यान में रखते हुए सहकारिया प्रशासनिक सुधार आयोग के सुझाव पर 1966 में दिल्ली प्रशासनिक एक्ट 1966 लागू किया गया लेकिन इसमें दिल्ली विधान सभा की जगह लेफ्टिनेंट गवर्नर के अधीन एक मेट्रोपॉलिटन काउंसिल का गठन किया गया. इसके पास सिर्फ उपराज्यपाल को सुझाव देने का अधिकार था. उपराज्यपाल के माध्यम से दिल्ली पर तभी से सीधे केंद्र सरकार का कब्जा रहा है.
1966 से 1990 तक मेट्रोपॉलिटन काउंसिल
इस मेट्रोपॉलिटन काउंसिल में 56 सदस्य होते थे जबकि 5 राष्ट्रपति द्वारा सीधे मनोनीत होते थे. मेट्रोपॉलिटन काउंसिल के प्रमुख चीफ एग्जक्यूटिव काउंसिलर होते थे. 1966 से 1967 तक संसद की अनुमति से मीर मुश्ताक अहमद को इसका अंतरिम प्रमुख बनाया गया. 1967 में इसके लिए पहला चुनाव हुआ. इस चुनाव में 33 सीटें जनसंघ को मिली जिसके बाद प्रोफेसर विजय कुमार मल्होत्रा चीफ एग्जक्यूटिव काउंसिलर बने जबकि लाल कृष्ण आडवाणी काउंसिल के चेयरमैन बने. हालांकि 1972 में हुए मेट्रोपॉलिटन काउंसिल के चुनाव में कांग्रेस ने 44 सीटें जीती और राधा रमण को सीईसी बनाया गया. 1977 में जनता पार्टी ने 46 सीटें जीतकर केदार नाथ सहनी को सीईसी बनाया. 1983 में मेट्रोपॉलिटन के आखिरी चुनाव में कांग्रेस ने 34 सीटें जीती और जग प्रवेश चंद्र को सीईसी बनाया. 1990 तक वे ही इस पद पर रहे.
1993 में नए विधानसभा का पहला चुनाव
संविधान के अनुच्छेद 239 एएए और 1991 कैपिटल टेरेटरी ऑफ दिल्ली एक्ट के तहत विधानसभा में 70 सीटों की व्यवस्था की गई और इसी आधार पर दिल्ली में 1993 में पहला चुनाव हुआ. इस चुनाव में बीजेपी ने मदन लाल खुराना, ओपी कोहली और दिग्गज विजय कुमार मल्होत्रा को चुनाव जीताने की जिम्मेदारी दी. 1984 में सिख दंगों की छाया में कांग्रेस पहले से ही इस चुनाव में पिछड़ी हुई थी. भाजपा ने प्रचंड बहुमत हासिल कर 49 सीटों पर कब्जा किया. 2 दिसंबर 1993 को मदन लाल खुराना को नए विधानसभा के गठन के बाद पहली बार मुख्यमंत्री बनाया गया.
1995 में मुख्यमंत्री खुराना पर हवाला संकट
मदन लाल खुराना ने मुख्यमंत्री का पद तो हासिल कर लिया लेकिन पार्टी में कई अन्य दिग्गज भी इस पद के लिए अपनी आस लगाए बैठे थे. नतीजा आपसी खींचतान बढ़ गई. फिर 1995 में हवाला केस ने देश के कई दिग्गजों को संकट में डाल दिया जिसमें लाल कृष्ण आडवाणी समेत कई दिग्गज नेताओं के नाम थे. मदन लाल खुराना का भी इसमें नाम था. इस तरह मदन लाल खुराना को इस्तीफा देना पड़ा. 2 दिसंबर 1993 को साहिब सिंह वर्मा दिल्ली के मुख्यमंत्री बने.
जब 52 दिनों के लिए सुषमा स्वराज बनीं दिल्ली की सीएम
साहिब सिंह वर्मा भी पार्टी को सही तरीके से साध नहीं सके. केंद्र में बीजेपी सरकार रहते हुए भी दिल्ली की जनता का वे भरोसा नहीं जीत सके. आपसी खींचतान और ज्यादा बढ़ गई. चुनाव में संभावित हार को देखते हुए बीजेपी ने चुनाव से कुछ दिन पहले तेज तर्रार नेता सुषमा स्वराज को 12 अक्टूबर 1998 को दिल्ली का पहला महिला मुख्यमंत्री बनाया.चुनाव में सुषमा ने अपना तेवर तो दिखाए लेकिन मंहगाई ने चुनाव में बीजेपी को बूरी तरह से पछाड़ दिया. कांग्रेस ने शीला दीक्षित के नेतृत्व में चुनाव लड़ा और ऐसी नींव तैयार कर ली जो आगे 15 सालों तक कायम रहा.
15 सालों तक शीला दीक्षित का राज
1998 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में शीला दीक्षित के नेतृत्व में कांग्रेस ने 52 सीटों पर कब्जा किया जबकि 1993 में 49 सीटें जीतने वाली बीजेप 15 सीटों पर सिमट गई. 3 दिसंबर 1998 को शीला दीक्षित दिल्ली की दूसरी मुख्यमंत्री बनीं और आगे 15 साल 25 दिनों तक 28 दिसंबर 2008 तक इस पद पर बनी रहीं. इस 15 सालों में दिल्ली में फ्लाई ओवरों का जाल बिछ गया. पहली बार मेट्रो आई. सड़कों की व्यवस्था सुधरी, दमघोंटू डीजल गाड़ी की जगह सीएनजी गाड़ियों को लाया गया. इन कामों का श्रेय आज भी शीला दीक्षित को जाता है. 2003 के चुनाव में कांग्रेस शीला दीक्षित को फिर एक बार आगे किया. उनके खिलाफ बुजुर्ग विजय कुमार मल्होत्रा को बीजेपी ने उतारा जबकि पार्टी का एक धरा युवा अरुण जेटली या हर्षवर्धन को उतारने के पक्ष में थे. नतीजा कांग्रेस ने फिर बाजी मारी और 47 सीटों पर कब्जा किया जबकि बीजेपी थोड़ा आगे बढ़कर 20 सीटें हासिल की. शीला दीक्षित दूसरी बार मुख्यमंत्री बनी. 2008 के चुनाव में भी शीला दीक्षित के नेतृत्व में ही कांग्रेस ने चुनाव लड़ा और 43 सीटें हासिल की जबकि बीजेपी 23 सीटों पर सिमट गई. अब देश की राजनीति में आमूल चूल परिवर्तन आ चुकी थी. 2012 में अन्ना आंदोलन की कोख से एक नए राजनीति के उदय ने 2013 के चुनाव में शीली दीक्षित को बुरी तरह हरा दिया और 15 साल की सत्ता का अंत हो गया.
अन्ना आंदोलन की कोख से निकले अरविंद केजरीवाल का 10 सालों से राज
केंद्र में कांग्रेस सरकार की बुरी तरह की असफलताओं ने कई आंदोलनों को जन्म दिया जिसमें अन्ना हजारे के नेतृत्व में राजधानी में सबसे बड़े आंदोलन ने आम आदमी पार्टी को जन्म दिया. कांग्रेस के खिलाफ जबर्दस्त लहर के बीच अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने 2013 के दिल्ली चुनाव में 28 सीटें हासिल कीं. 32 सीटें हासिल कर बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी तो बनी लेकिन कांग्रेस की 8 सीटों की मदद से अरविंद केजरीवाल ने सरकार बना लिया. मगर 49 दिनों तक मुख्यमंत्री के पद पर रहने के बाद कांग्रेस पर कई आरोप लगाकर सरकार से इस्तीफा दे दिया. वे 14 फरवरी 2014 तक इस पद पर रहे. उन्होंने देश की राजनीति शुरू की. लेकिन इस समय तक देश में नरेंद्र मोदी ने अपने कद का विस्तार कर लिया था. मई 2014 में लोकसभा चुनाव हुए. अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने भी इस चुनाव में किस्मत आजमाया. अरविंद केजरीवाल खुद नरेंद्र मोदी के खिलाफ वाराणसी से उतर गए. हालांकि उन्हें रत्ती भर भी सफलता नहीं मिली. 14 फरवरी 2014 से 13 फरवीर 2015 तक दिल्ली में विधानसभा भंग रही. 2015 में दिल्ली में चुनाव हुए तो केजरीवाल ने प्रचंड बहुमत हासिल किया. 70 सीटों में 67 सीटों पर कब्जा कर लिया. यह दिल्ली के इतिहास की सबसे बड़ी जीत थी. सिर्फ 3 सीटें ही बीजेपी जीत सकी. कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला. बड़े सपने के साथ अरविंद केजरीवाल 14 फरवरी 2015 को दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने. 2020 के चुनाव में केजरीवाल दोबारा 62 सीटों पर कब्जा जमाया और 16 फरवरी 2020 को तीसरी बार सीएम पद की शपथ ली.
शराब घोटाले की छींट से छवि दागदार
अरविंद केजरीवाल 9 साल 218 दिनों तक लगातार दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे. लेकिन शराब घोटालों से घिरी उनकी पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं के जेल जाने से पार्टी की छवि बुरी तरह प्रभावित हुई. उनके सभी बड़े नेता जेल की हवा खा चुके हैं. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को भी अंततः जेल जाना पड़ा. 21 मार्च 2024 को उन्हें तिहाड़ जेल भेज दिया गया लेकिन उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया. 13 सितंबर 2014 को पांच महीने के बाद केजरीवाल बेल पर रिहा हुए और 21 सितंबर को उन्होंने पद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद से दिल्ली में आतिशी मुख्यमंत्री का पद संभाल रही हैं.
Location :
New Delhi,New Delhi,Delhi
First Published :
February 07, 2025, 11:44 IST