महफ़िल ए कालीन
औरंगाबाद: जिले के ओबरा स्थित महफिल ए कालीन, जो कभी अपनी कालीन और दरी के लिए देशभर में मशहूर था, अब अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहा है. राष्ट्रपति भवन की शोभा बढ़ा चुका यह संस्थान आज सही दाम न मिलने के कारण परेशान है.
राष्ट्रपति की सराहना और प्रशिक्षण की शुरुआत
महफ़िल ए कालीन के असिस्टेंट मैनेजर विकास रत्नम ने बताया कि 1972 में ओबरा के निवासी मो अली मियां को तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा उनके खूबसूरत कालीन के लिए सम्मानित किया गया था. इसके बाद, 1975 में त्रिशम योजना के तहत 1000 स्थानीय युवाओं को कालीन बनाने की ट्रेनिंग दी गई, जो 1987 तक चली. इस दौरान महफिल ए कालीन संस्था की स्थापना भी की गई और ओबरा में 86 से अधिक हैंडलूम चलते थे, जिसमें हजारों बुनकर काम करते थे.
उत्पादन में गिरावट और मशीनों का आगमन
विकास के अनुसार, 1975 से 2010 तक ओबरा के कालीन की मांग देशभर में थी. लेकिन, 2010 के बाद इंग्लैंड की कंपनी द्वारा जयपुर में सिंथेटिक कालीन बनाने का काम शुरू होने से बाजार में बदलाव आया. सस्ते सिंथेटिक कालीनों के कारण ओबरा के हाथ से बने कालीनों की मांग में कमी आई. आज ओबरा में केवल 5-6 हैंडलूम चल रहे हैं.
वर्तमान स्थिति: घटती मांग और कम होते बुनकर
विकास बताते हैं कि कालीन और दरी के निर्माण के लिए पानीपत से काती सुता मंगाया जाता है, जिसके लिए सरकार द्वारा भाड़ा अनुदान दिया जाता है. लेकिन, मांग में कमी के कारण, जो भी उत्पादन होता है, उसका उचित मूल्य नहीं मिल रहा. वर्तमान में महफ़िल ए कालीन में सिर्फ 25 लोग काम कर रहे हैं, जिसमें 10 महिलाएं और 15 पुरुष शामिल हैं.
वादे अधूरे और भविष्य की अनिश्चितता
2011 में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ओबरा में बुनकरों को संबोधित करते हुए महफिल ए कालीन को फेडरेशन से जोड़ने का वादा किया था, जिससे कालीन की मांग बढ़ सके. लेकिन यह वादा अब तक अधूरा है. वर्तमान में कालीन की कीमत 400 से 1200 रुपए प्रति वर्ग फुट के बीच है, लेकिन बाजार में उसकी बिक्री की स्थिति चिंताजनक है. महफिल ए कालीन का यह संघर्ष न केवल ओबरा की सांस्कृतिक धरोहर के लिए बल्कि उन बुनकरों के लिए भी है, जो दशकों से इस कला को जीवित रखे हुए हैं.
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FIRST PUBLISHED :
September 24, 2024, 11:43 IST