राजस्थान की राजनीति अलग ‘भील प्रदेश’ के मसले पर फिर गरमा गई है. बीजेपी और भारत आदिवासी पार्टी (BAP) आमने-सामने हैं. विवाद की शुरुआत 9वीं कक्षा की किताब में छपे एक पैराग्राफ के सामने आने से हुई. किताब में लिखा गया है कि मशहूर समाज सुधारक गोविंद गुरु भी अलग भील प्रदेश चाहते थे. राज्य सरकार ने इस पैराग्राफ को किताब से हटाने का आदेश दिया तो भारत आदिवासी पार्टी नाराज हो गई. क्योंकि अलग भील प्रदेश उसका सबसे बड़ा एजेंडा है.
9वीं कक्षा की किताब ”राजस्थान का स्वतंत्रता आंदोलन एवं शौर्य परंपरा’ के चौथे चैप्टर में लिखा गया है, ‘सामंती और औपनिवेशिक सत्ता के उत्पीड़क व्यवहार ने गोविंद गुरु और उनके शिष्यों को औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के लिए भील राज्य की योजना की तरफ प्रेरित किया…’ कुछ लोगों की नजर इस पैराग्राफ पर गई तो विवाद हो गया. जिसमें उदयपुर सांसद मन्नालाल रावत भी हैं. उन्होंने तर्क दिया कि गोविंद गुरु अहिंसक आंदोलन के अगुवा थे. अंग्रेजों ने उनसे अलग भील राज्य की बात जबरन लिखवाई थी.
रावत ने CM भजनलाल शर्मा को चिट्ठी लिखी. उनकी आपत्ति पर सरकार ने इस तथ्य को किताब से हटाने का आदेश दिया है. तो आखिर कौन थे गोविंद गुरु जिनके नाम पर राजस्थान की सियासत उबल गई है?
कौन थे गोविंद गुरु (Govind Guru Banjara)
राजस्थान और गुजरात की सीमा पर बसे बांसवाड़ा और उसके आसपास के इलाके में गोविंद गुरु भगवान की तरह पूजे जाते हैं. करीबन हर कस्बे में उनकी मूर्ति मिल जाएगी. इस इलाके में भील, बंजारा और आदिवासी समुदाय के दूसरे लोग गोविंद गुरु को अपना सबसे बड़ा आराध्य मानते हैं. 20 दिसंबर 1858 को राजस्थान के डूंगरपुर के बासिया गांव में जन्मे गोविंद गुरु का पूरा नाम गोविंद गिरी था. उनका जन्म एक बंजारा परिवार में हुआ. किशोरावस्था में पहुंचे तो उन्होंने अपने आसपास के भील, बंजारा और आदिवासियों पर जुल्म को करीब से महसूस किया. गोविंद गिरी को लगा कि उस दौर के राजा-महाराजा और जमींदार आदिवासियों पर कहर ढा रहे हैं. उनसे बेगारी करा रहे हैं और सम्मानजनक जीवन का अधिकार छीन लिया है. इसके बाद उन्होंने आदिवासियों को मुक्ति दिलाने की ठानी.
rajras.in पर दी गई जानकारी के मुताबिक गोविंद गुरु पत्नी और बच्चों की मौत के बाद आध्यात्म की तरफ मुड़ गए और संन्यासी जीवन अपना लिया. इसके बाद उन्होंने कोटा बूंदी इलाके के संत राजगिरी को अपना गुरु बनाया और बेड़सा गांव में धूनी रमाकर रहने लगे. यहां उन्होंने आसपास के भील, बंजारा और दूसरे आदिवासियों को आध्यात्मिक शिक्षा देना शुरू किया. धीरे-धीरे वो गोविंद गिरी से गोविंद गुरु के नाम से पहचाने जाने लगे.
क्या थी गोविंद गुरु की ‘संप सभा’
गोविंद गुरु ने साल 1883 में ‘संप सभा’ की स्थापना की. इसका मकसद आदिवासिओं के बीच सांस्कृतिक चेतना का विकास करना और उन्हें गुलामी के जीवन से मुक्ति दिलाना था. संप सभा ने 6 नियम बनाए, जो इस तरह थे.
1. शराब से दूरी, नित्य स्नान, ईश्वर की पूजा और हवन
2. चोरी, लूट और डकैती से दूरी
3. बेगारी से दूरी और अन्याय का विरोध
4. स्वदेशी कपड़ों का इस्तेमाल
5. आपसी विवाद का हल पंचायत में करना
6. पिछड़ी जातियों के लिए गांव में स्कूल और उनका सुधार
फिर ‘भगत पंथ’ की स्थापना
देखते ही देखते गोविंद गुरु बांसवाड़ा से लेकर डूंगरपुर तक के इलाकों में खासे लोकप्रिय हो गए. संप सभा के चलते भीलों ने जमींदारों, राजा महाराजाओं और सामंतों के यहां बेकारी बंद कर दी. इससे राजा-रजवाड़े परेशान हो गए. उन्होंने संप सभा को कुचलने की साजिश रचनी शुरू कर दी. हालांकि गोविंद गुरु रुके नहीं. उन्होंने साल 1911 में ‘भगत पंथ’ की स्थापना की. इस पंथ के लोग अग्नि को साक्षी मानकर लोग चोरी-चकारी से लेकर शराब और व्यभिचार जैसी चीजों से दूर रहने की की शपथ लिया करते थे.
क्यों अंग्रेज गोविंद गुरु से घबरा गए
गोविंद गुरु (Govind Guru Banjara) को मानने वालों की संख्या बढ़ी तो उन्होंने हर साल बांसवाड़ा जिले के मानगढ़ में एक समागम जैसा शुरू कर दिया. साल 1913 में समागम या मेले का समय आया तो हजारों की तादाद में भील, बंजारा और आदिवासी समुदाय के लोग मानगढ़ की पहाड़ी पर जुट गए. वार्षिक मेले से ठीक पहले गोविंद गुरु ने शासन को चिट्ठी लिखकर अकाल पीड़ित आदिवासियों से लिया जा रहा कर घटाने और बेगार के नाम पर उन्हें परेशान न करने को कहा था. अंग्रेजी प्रशासन ने जब मानगढ़ की पहाड़ी भारी तादाद में भीलों-आदिवासियों का जुटान देखा तो घबरा गया. स्थानीय राजे-रजवाड़े, जमींदार और सामंत भी उन्हें हवा दे रहे थे.
कैसे गोविंद गुरु की फांसी आजीवन कारावास में बदली
अंग्रेजों ने 17 नवंबर 1913 को मानगढ़ की पहाड़ी को चारों तरफ से घेर लिया और गोली चलानी शुरू कर दी. देखते ही देखते 1500 से ज्यादा आदिवासियों की लाशें बिछ गईं. गोविंद गुरु के पैर में भी गोली लगी. अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर अहमदाबाद की जेल में बंद कर दिया और फांसी की सजा सुनाई. संप सभा को भी अवैध घोषित कर दिया. हालांकि कुछ वक्त बाद गोविंद गुरु की फांसी की सजा आजीवन कारावास में बदल गई. साल 1923 में जेल में अच्छे व्यवहार के कारण उन्हें रिहा कर दिया गया. हालांकि उनके बांसवाड़ा और डूंगरपुर की सीमा में आने पर पाबंदी लगा दी गई. इसके बावजूद वो भीलों, बंजारों और आदिवासियों के उत्थान के लिए काम करते रहे. 30 अक्टूबर 1931 को उनका निधन हो गया.
मानगढ़ की पहाड़ी पर हुई घटना (Mangarh Massacre) को राजस्थान के जलियांवाला बाग हत्याकांड के नाम से भी जानते हैं. बाद में इस घटना ने देश में स्वतंत्रता आंदोलन की चिंगारी भड़काने में बड़ी भूमिका निभाई. अब भी हर साल मानगढ़ की पहाड़ी पर मेले का आयोजन होता है, जिसमें राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और देश के दूसरे कोनों से हजारों लोग जुटते हैं. मानगढ़ धाम में ही जनजातीय स्वतंत्रता संग्राम संग्रहालय भी बना है.
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FIRST PUBLISHED :
September 30, 2024, 16:43 IST